Sunday, July 20, 2014


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ORIGINAL ARTICLE WRITTEN BY ROMA AND ASHOK CHOUDHARY

दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक विरासत की पहचान उस्ताद मेहदी हसन खां
-रोमा और अशोक चैधरी
किसी भी देश की पहचान उसकी सांस्कृतिक विरासत से होती है, जो कि एक विशेष समयकाल में सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों को प्रभावित करती है। यूं तो दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप का रूढि़वादिता के खिलाफ अपनी एक सांस्कृतिक विरासत है जिसका 700 साल का सुनहरा इतिहास है । उसी विरासत को उस्ताद मेहदी हसन खां जैसे फनकारों ने जि़न्दा रखा और पूरे दक्षिण ऐशियाई उपमहाद्वीप को अपनी नायाब गु़लूकारी व संगीत से नवाज़ा। उन्हीं के जन्मदिन 18 जुलाई उनको श्रद्धांजलि के तौर पर यह लेख प्रस्तुत है।  
यह लेख पाकिस्तान और भारत की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में उस्ताद मेहदी हसन जैसे गायक के उभार व उनके द्वारा मीर, मिजऱ्ा ग़ालिब, फ़ैज़ अहमद ‘‘फ़ैज’’, हबीब जालिब, नासिर काज़मी जैसे इंक़लाबी व कई तरक़्कीपसंद शायरों के साथ उनके संगीत के सफर को समर्पित है। दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप में 1947 में भारत और पाकिस्तान के बंटवारे ने जिस बड़े पैमाने पर कत्लेआम, साम्प्रदायिकता और वैमन्स्य की भावनाओं को फैलाया उसकी मिसाल पूरी दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलती, जिसके पीछे साम्राज्यवादी ताकतों और उनके पिछलग्गू सामंत-अभिजात वर्ग का हाथ था। इस बंटवारे के बाद जिस तरह से दोनों देशों में और इस पूरे उपमहाद्वीप में सामाजिक व सांस्कृतिक ताना बाना टूटा है, उसकी वजह से यह उपमहाद्वीप आज भी दमन, अन्याय, ग़रीबी, व सामाजिक राजनैतिक आर्थिक असमानताओं के संकट से जूझ रहा है और अब पूरी तरह से नवउदारवादी अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद की गिरफ्त में है। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद पकिस्तान की आवाम कई दशकों तक तानाशाह फौजी हुक़्मरानों के साये में जीने को मजबूर हुई। वहां की प्रगतिशील ताकतों ने इस उपमहाद्वीप की सात सौ साल की सांस्कृतिक विरासत जोकि अमीर खुसरो, कबीर, नानक, रैदास, बाबा फरीद, मीर तक़ी ‘‘मीर’’, ग़ालिब, बुल्लाशाह, फ़ैज़, साहिर, नज़ीर अकबराबादी की विरासत से आती है को  अमन, प्रेम ओर मैत्री के सहारे समाज को बांधे रखा। इसी सांस्कृतिक धरोहर को ना सिर्फ जि़न्दा रखने बल्कि इसका दक्षिण ऐशियाई स्तर पर और पूरी दुनिया के मुख़्तलिफ़ मुल्कों में विस्तार करने में जनाब मेहदी हसन साहब ने एक कि़़रदार अदा किया है, इसलिए हम उनको दक्षिण एशिया के अव्वल दर्जे का मयारी फनकार मानते हैं। उनकी ग़जल गायकी में नई परम्परा का असर पूरे दक्षिण एशिया में खासतौर पर पाकिस्तान, भारत और बंग्लादेश के कई ग़ज़ल गायकों में रहा है। भारत के आधुनिक युग के मशहूर ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह उसी विरासत की उपज हैं। भारत की सबसे मशहूर गायिका लता जी ने खां साहब के जिन्दा रहते हुए कहा था  ‘‘ उनके गले में भगवान बसता है’’।   
बंटवारे के बाद खां साहब के परिवार ने पाकिस्तान आने के बाद काफी आर्थिक तंगहाली का सामना किया। खां साहब ने उस समाजिक उथल-पुथल के दौर में भी परिवार की आजीविका के लिए संघर्ष तो किया ही, लेकिन साथ-साथ संगीत की पंद्रह पुश्त की उस विरासत को भी जिन्दा रखा। 1970 में रेडियो पाकिस्तान में व बाद में पाकिस्तान टीवी पर दिए गए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि ‘‘पाकिस्तान में ग़ज़ल मर चुकी थी, हिन्दुस्तान में फैज़ाबाद की अख्तरी बाई ने ग़ज़ल को मशहूर किया, इसलिए सन् 1952-53 में जब रेडियो पाकिस्तान में मुझे मौका मिला तो मैं ग़ज़लों की ओर मुड़ा। मैंने जो भी ग़ज़ले कम्पोज़ कीं उनका आधार क्लासिकल था, जो किसी न किसी राग पर आधारित थीं। जैसे ‘‘ये धुआं कहां से उठता है...’’ और ‘‘गुलों में रंग भरे...’’ राग झिंझोटी, ‘‘बात करनी मुझे मुश्कि़ल..’’ राग पहाड़ी और ‘‘रंजिश ही सही...’’ राग यमन से। रागों पर बनी इन ग़ज़लों में जान आ गई और ये अमर हो गई। मैंने यह कोशिश की कि राग भी खराब न हो और सुर भी, राग के आधार पर तर्ज बनाने से सुनने वाले पर भी असर होता है, गाने का असर हो न हो लेकिन राग का असर ज़रूर होता है। राग की आमद इतनी बड़ी होती है कि उसका असर तो जानवर पर भी पड़ता फिर हम तो इंसान हैं। ’’ खां साहब की संगीत के नए फार्मुले की खोज ज़ाहिर है उस समय पाकिस्तान के माहौल की वजह से भी होगी जहां पर जीवन अस्त-व्यस्त था, बंटवारे, हिंसा और लूट के बाद सब अपने जीवन के दर्द को समेटते हुए नए तरीके से आबाद होने में लगे हुए थे। उन्होंने ग़ज़ल की शैली में प्रेम, सोज़ व दर्द की प्रधानता को और भी उभारा, जिसका सहारा उन्हें उच्चकोटि के शायरों की ग़जलों, नज्मों के साथ उनके पुश्तैनी संगीत घराने की विरासत के तालमेल से मिला। उनकी गायकी में राग का चयन, शायर और शायरी का चयन, तलफ़्फ़ुस, लय व ताल की बारीकियां इतनी सूक्ष्मता के साथ शामिल रहीं, जिसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होती थी। संगीत में शब्द और बोल के महत्व को रागों में स्वरों और श्रुति के इस्तेमाल से उस जज़्बात को उभारा जो कि बेमिसाल है। मज़ेदार बात यह है कि जब वे पाकिस्तान आए तो उन्हें उर्दू नहीं आती थी। जयपुर में उनके वालिद उस्ताद अज़ीम खां द्वारा घर पर ही उन्हें संगीत की तालीम के साथ-साथ हिन्दी और संस्कृत पढ़ाने वाले एक मास्टर से तालीम दिलवाई। उर्दू की समझ और तालीम उन्होंने पाकिस्तान में ली और इस कदर इस भाषा के साथ उनकी आत्मीयता बढ़ी कि उनकी शायरी की समझदारी ऊंचे दर्जे की बन गई। 
उन्होंने पूरे दक्षिण एशिया की पीड़ा के मनोभाव को संगीत में मुख़्तलिफ़ उर्दू शायरी जैसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, जोश, मोमिन, नासिर काज़मी, कतील शिफ़ाई, ग़ालिब, जालिब, परवीन शाकिर, शहज़ाद के साथ मिला कर इस्तेमाल किया ।  उन्होंने कभी अपने आप को केवल पाकिस्तान से नहीं जोड़ा बल्कि अपने संगीत को दक्षिण एशियाई संगीत का दर्जा दिया। उन्होंने इस बात का बेहतरीन तरीके से जिक्र किया, ‘‘1949-50 में ग़ज़ल को मशहूर करने के लिए मैं दो साल हूट हुआ हूॅ, ये समझाने के लिए कि ग़ज़ल क्या चीज़ होती है। मैं लकीर का फकीर नहीं हूॅ कि रिकार्ड बनके गाना गाऊं, सुर ईश्वर को भी कहते हैं और सुर जि़न्दगी का भी नाम है, सुर आप सुन सकते हैं महसूस कर सकते हैं, लेकिन देख नहीं सकते, रूह की गज़ा है सुर। इसलिए ये मौसिक़ी जो कि एशिया की है हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, बंगाल, मद्रास ये म्यूजि़क हमारा है, जिसमें मिसाल दे सकता हूॅ कि ये जि़न्दा है। मेरी 1954-55-56 की ग़ज़ल आज तक भी जि़न्दा क्यों हैं, क्योंकि मैं अपने एशिया म्यूसिक के अंदर ही हूॅ, मैं इससे बाहर नहीं निकलना चाहता।’’ उनका कहना था कि‘‘ ‘‘1950 तक तो मैं क्लासिकल ही गाता रहा, उसके बाद ज़हनियत में कुछ और बात आ गई, कि गाने वाले को भी चैन मिले और सुनने वाले को भी चैन मिले। मैंने ज़्यादा मुश्कि़लात को लाईट में लिया। ’’ इस जज़्बे ने उन्हें आम जनता के साथ जोड़ा और आम दिलों में संगीत, शायरी और शायरों का बेहतरीन जुड़ाव हुआ।

 उनकी गायी बेहतरीन ग़जल ‘‘वो दिलनवाज़ है...’’ में राग बिहाग का उभार हो या फिर ‘‘अब के बिछड़े....’’ में राग भोपाली का उतरा हुआ स्वर हो, ऐसी अदायगी है जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। ‘‘अब के बिछड़े...’़ गाते-गाते खां साहब खुद बड़ी गहराई के साथ कहते हैं कि ‘‘ये अहमद फराज़ की ग़ज़ल है, इसमें जो फ़राज़ ने तसव्वुर किया है, उसी तरह के सुर का इस ग़ज़ल पर असर है, जो कि उजाड़, बियाबान, फिराक़, बिछोड़ा है। इसमें ऐसे स्वर का इस्तेमाल किया गया है, जिसमें आप खुशी नहीं महसूस करंेगे। ये राग भूपाली है जिसमें एक सुर ‘ध’ उतरा हुआ है, इसके बारे में आप मालुमात करेंगे तो आपको गवाही मिलेगी कि जिसका रिवाज़ ही नहीं है, ये गाया ही नहीं जाता और न ही गाया गया है। ’’ इसी ग़ज़ल के अगले शेर में ‘‘ ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफा के मोती, .....’’ गाते हुए वे कहते हैं कि यह गाना इतना मुश्कि़ल है, कि इसमें सुर भी बहक सकता है, जिसमें बेसुरा भी हो सकता है’’। संगीत में पन्द्रह पीढि़यों के खानदान से तआल्लुक़ रखने वाले मेहदी हसन भी बहकने की बात इतनी विनम्रता से करते थे। इसी गज़ल को सुन कर मन्ना डे जैसे महान फनकार ने इस ग़जल में सुरों के स्केल को इस्तेमाल करने के लिए खां साहब की ज़बरदस्त हौसलाफ़जाई की थी। 
यूं तो भारत और पाकिस्तान के संगीत की परम्परा एक ही है, लेकिन आज़ादी से पहले अंग्रेज़ी हुकुमत के दौरान जो दमन का माहौल था उस दौरान उत्तर-पश्चिम भारत में उर्दू शायरी व संगीत के अंदर काफी गहराई पैदा हुई, जिसके माध्यम से आम जनमानस ने सांस्कृतिक तरीके से साम्राज्यवादी, सांमती व पूंजीवादी ताकतों के विरोध और प्रतिशोध को मुखर रूप से अभिव्यक्त किया। हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में भी इस तरह की परम्परा रही। बंटवारे के बाद संगीत की यह परम्परा भी बंट गई व पाकिस्तान में जिस तरह का तानाशाही माहौल था, उसने संगीत की एक नई परम्परा का विकास किया जिसकी मिसाल भारत में देखने को नहीं मिलती। 
 राजस्थान के झुनझनू के मौजा लूना में 18 जुलाई 1927 को जन्मे मेहदी हसन कलवंत संगीत घराने के वंशज थे, जिनके पूर्वज राजा मानसिंह के ज़माने से पंद्रह पुश्तों से जयपुर राजदरबार में राजगायक थे। उन्हें संगीत की तालीम उनके पिता उस्ताद अज़ीम खां और चचा उस्ताद इस्माईल खां से मिली थी, जो कि ध्रुपद गायकी में माहिर थे। इन्हीं उस्तादों ने इस संगीत को जयपुर घराने से बाहर राजा नेपाल, बड़ौदा, इंदौर, बीजावर स्टेट और उ0प्र0 के कई राजघरानों में लेजाने का काम किया, जो कि उनके शार्गिद भी थे। घर में संगीत के इस माहौल का इतना असर था, कि मेंहदी हसन महज छह साल की उम्र से ही गाने लगे थे। पाकिस्तान उनके सामने ही बना, वे बंटवारे के केवल 5-6 महीने पहले अपनी फूफी से मिलने पंजाब आए थे और दंगे फसाद में सब कुछ लुट जाने के बाद वे वापिस जयपुर स्टेट में अपने गाॅव नहीं जा सके। उनके पूरे परिवार को भी इस बंटवारे की त्रासदी झेलनी पड़ी और राजदरबार से सड़क पर आने को मजबूर होना पड़ा। मेहदी हसन जैसे गायक की तालीम की जो कहानी है वो भी कम हैरत अंगेज़ नहीं है। एक तरफ़ जहां वे सुर को इतने प्यार व नर्मी से लगाते हैं, उन्हीं नर्म सुरों को साधने के लिए उन्हें इसके एकदम उलट पहलवानी करनी पड़ी और कुश्ती भी लड़नी पड़ी। संगीत, पहलवानी और मशीनरी से लगाव, इन तीनों का तालमेल था उनके व्यक्तित्व में। हालांकि यह सब भी संगीत के अभ्यास का ही एक हिस्सा था, पहलवानी और संगीत के सम्बन्ध को बताते हुए वे कहते हैं कि ‘‘एक फनकार को बनते देर लगती है, बिगड़ते देर नहीं लगती। मेरी संगीत की बुनियाद मेरे बुजुर्गो ने रखी है शायद ही किसी आर्टिस्ट की वो बुनियाद रखी गई हो। गाना सांस का काम है इसलिए गाना गवाने के लिए मेरे चचा दौड़, दंड बैठकें लगवाते थे। उनका कहना था कि गाना भी पहलवानी का काम है। जब में 15-16 साल की उम्र में पहुंचा तो उस वक्त सुबह 2000 दंड बैठक, 3-4 मील की दौड़ लगानी होती थी और शाम को 4 से 7 बजे तक अच्छे पहलवानों के साथ अखाड़े में कुश्ती लड़ना, यह रोज़ की दिनचर्या थी। मेरे चचा छड़ी लेकर मेरे पीछे खड़े रहते थे और सांस लेने नहीं देते थे। इससे सांस पक्का हुआ। गले की तैयारी सुब्हा होती थी, तानपुरे के साथ तान और गायकी की। चाचा ने मुझे इस इल्म से वाकि़फ कराया चूंकि वो पहलवान थे। वे पहलवान भी इसलिए बने चूंकि वो और मेरे वालिद धुप्रद गाते थे, जिसमें सांस और ताकत की ज़रूरत होती थी। जब तक गाने वाले का सांस क़ायम है तब तक वो गाता रहेगा।’’ उनकी पूरी गायकी के पीछे यही तालीम है, जिसे बहुत लोग नहीं जानते हैं। 
पाकिस्तान आने के बाद परिवार को चलाने के लिए उनके पिता लकड़ी की टाल खोलना चाहते थे। जिसका विरोध मेहदी साहब ने किया और कहा कि इतने बड़े दरबार में गाने वाले उस्ताद क्या ‘‘अज़ीम खां टाल वाले’’ कहलाएंगे? उन्होंने अपने संगीत की विरासत को बचाने में उस समय संघर्ष किया जब वे आर्थिक तंगी से गुज़र रहे थे।  उन्होंने जो पैसे टाल लगाने के लिए जमा किए थे, उनमें 10 रुपये से चिचावत में मोटर साईकिल के नट बोल्ट कसने की दुकान खोली, जिसकी जानकारी उन्हें रियासत में गाड़ीयों की मशीन में रूचि के वक्त मिली थी।  यह दुकान काफी अच्छी चली जिसमें उन्हें रोज़ 12 रुपये की कमाई होने लगी। डेढ़ साल में दुकान काफी बढ़ी और फिर मशीन का काम सीखने के लिए वे सकर चले गए। भावलपुर में डीज़ल इंजन बनाना सीखा, पैट्रो इंजीनियर बने फिर फरगुसन कम्पनी से इंजन फिटिंग का डिपलोमा हासिल किया। अपने इस हुनर से उन्होंने डीज़ल इंजन मैकेनिक का गैरज खोला जिसमें उन्हें हज़ारों में कमाई होने लगी थी। लेकिन जब उन्हें रेडियो पाकिस्तान में गाने के लिए निमंत्रण मिला तो उन्होंने यह काम अपने पार्टनर को सौंप दिया था। रेडियो पाकिस्तान से उन्हें गाने के लिए ए ग्रेड आर्टिस्ट की मान्यता मिली तो उन्हें हर प्रोग्राम के लिए 35 रुपये मिलते थे। पहला फिल्मी गाना गाने के लिए उन्हें 1000 रुपये मिले थे । डीज़ल इंजन में माहिर अपने हज़ारों रूपये के अच्छे कारोबार छोड़ते वक्त उनके दोस्तों और कारीगरों ने कहा कि यह काम छोड़ कर क्यों जा रहे हैं? इससे तो नुकसान होगा? तब उन्होंने कहा कि ‘‘अब मुझे मेरी लाईन मिल गई’’। और सन् 1950 में मेहदी हसन ने लाहौर की राह पकड़ी। शुरूआती दौर की पेशेवर गायकी में उनके बड़े भाई पंडित गुलाम कादिर ने उनकी काफी मदद की व उनकी कई मशहूर ग़ज़लों को कम्पोज़ किया। उनके बड़े भाई को पंडित की डिग्री भारत में मिली थी और वे ताउम्र पंडित ही कहलाए। 
वैसे खां साहब काफी परम्परावादी भी थे, जिनका शासक वर्ग के साथ कभी टकराव नहीं रहा, क्योंकि उनको संगीत की विरासत राजा महाराजाओं के संरक्षण में ही मिली थी। लेकिन संगीत के मामले में उन्होंने बहुत सारे बुनियादी क्रांतिकारी परिवर्तन किए, संगीत घरानों की परम्पराओं को बरक़रार रखते हुए भी नई परम्परा  पैदा की जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक पटल पर नयी गतिशीलता आई। उन्होंने हिन्दुस्तानी संगीत परम्परा को नहीं छोड़ा व अपने वतन की संस्कृति से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। उन्होंने ऐसे शायरों का चयन किया जो परम्परावादी विचारों के खिलाफ थे। मिसाल के तौर पर फैज़ साहब की एक गजल ‘‘ दोनो जहां ... का एक शेर ‘‘इक फ़ुरसत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन, देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के’’ इसमें फैज ने कठमुल्लावाद को खुली चुनौती दी, जिसको मेहदी साहब ने पूरी शिद्दत के साथ गाया। इस ग़ज़ल को काफी गायको ने गाया, लेकिन यह शेर नहीं गाया गया। फैज़ ने 1947 में आज़ादी पर सवाल उठाती क्रांतिकारी नज़्म ‘‘ये दाग़ दाग़ उजाला....’’ लिखी थी, जो कि पाकिस्तान राष्ट्र की पोल खोलती है। खां साहब ने ‘‘फ़ैज़’’ की ग़ज़ल ‘‘गुलों में रंग भरे बादे नौ बाहर चले..... ’’ को 50 के दशक में तब गाया जब फ़ैज़ का दर्जा पाकिस्तान में विद्रोही शायर का था। पाकिस्तानी हुक़ूमत फ़ैज़ को कम्युनिस्ट और पाकिस्तान विरोधी मानती थी, जिसकी वजह से उन्हें पांच साल जेल में भी रहना पड़ा था। 1957 में इस ग़जल को गाने के बाद मेहदी हसन की पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनी। इसी श्रंृखला में हबीब जालिब की ग़जल ‘‘दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुख सहते हैं...’’ को गाकर उन्होंने इस महान क्रांतिकारी शायर के दर्द को दुनिया के सामने पेश किया। स्मरण रहे हबीब जालिब हमेशा पाकिस्तानी हुक़्मरानों के खिलाफ खुलकर लिखने के जुर्म में बार-बार लम्बे समय तक जेल में कैद रहे। मेहदी हसन से पहले शायद ही किसी गायक ने जालिब को गाया। बंटवारे की त्रासदी में ऐसे ही दूसरे शायर नासिर काज़मी ने आम लोगों के अलगावाद को बहुत खूबी के साथ अपनी शायरी में अस्तित्ववादी दर्शन के तहत वर्णन किया। मिसाल के तौर पर ‘‘गुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदा-ओ-दिल, सहर की आस तो है जि़न्दगी की आस नहीं’’। इस अलगाव को खां साहब ने राग बिहाग में इस तसव्वुर को कायम किया और बिहाग के पूरे लिबास को ऐसे उभारा, जो कि विरले ही सुनने को मिलता है। ग़ालिब, फ़ैज़, फ़राज़, नासिर, जालिब के बाद परवीन ‘‘शाकिर’’ जैसी नारीवादी शायरा की ग़ज़ल ‘‘क़ू-ब-क़ू फैल गई बात शनासाई की......’’इस ग़ज़ल को राग दरबारी का रंग देकर खां साहब ने एक अनोखा तोहफ़ा दिया है।  
 खां साहब का पूरे जीवन में उनका जुड़ाव राजस्थान में अपने पैतृक गांव से रहा और 1978 में अपने गांव गए तो वहां बिजली और सड़क पहुंचाने के लिए गवर्नर से भेंट कर इस काम को पूरा करवाया और साथ ही सड़क बनाने के लिए अपना एक प्रोग्राम कर राजस्थान सरकार को प्रोग्राम से मिले दो लाख भेंट भी किए। अपने कई बड़े कार्यक्रमों में वे राजस्थान की लोक रचना ‘‘ केसरिया बालम....’’ जरूर गाते थे। 
मेहदी हसन खां साहब ने अपनी क्लासिकी संगीत की जिस विरासत को प्रगतिशील मयारी शायरी के साथ जोड़ कर सृजन किया वही साझी सांस्कृतिक विरासत इस पूरे उपमहाद्वीप की धरोहर है और पहचान है। इसके साथ ही साथ यह विरासत लोक संगीत की भी है, जो कि दुखः, तक़लीफ और हिंसा व लोगों पर होने वाले हमलों के खिलाफ़ आवाम को संघर्ष के लिए भी ताकत प्रदान करती है और नफ़रत की दीवारों को तोड़ने में एक अहम कि़रदार अदा कर सकती है। यह संदेश इस उपमहाद्वीप के उन हुक़्मरानों के खिलाफ भी है, जो हिंसा का जवाब हिंसा से देना चाहते हैं और असल में अमन के दुश्मन हंै। खां साहब के जन्मदिन पर हम सभी आम लोगों को इस साझी सांस्कृतिक विरासत को क़ायम रखने व और मज़बूत करने का संकल्प लेना चाहिए। और इस संगीत की सांस्कृतिक विरासत की ताक़त से आने वाले दिनों में समाज के अंदर न्याय, अमन, मैत्री, समानता पर आधारित जनवादी मूल्यों को मजबूत करने के संघर्ष को एक जश्न की तरह देखना चाहिए।
नोट: लेखकगण वनाश्रित समुदायों के साथ कार्य करते हैं।