Massive
Rally By the Independent Trade Unions and Social Movements on 23rd
March 2014, Jantar Mantar, New Delhi, India to celebrate the Martyr's
Saheed-e-Azam Bhagat Singh Death Annivarsary. Pl join in large numbers.
Political Statement - from the meeting of groups in Delhi on the 22/23-02-2014
As
a follow up of the Jashn-e-Sangharsh of movements, activists and
community leaders along with cultural groups, held in Chirala (Andhra
Pradesh) in January 2014 a political meeting of people’s movements,
organised and unorganised sector trade unions and traditional natural
resource based community representatives was held on the 22nd and 23rd February 2014 in Delhi.
The
existence of social movements and trade unions dates back to the
history of left movement in India itself. The mass organisations and
trade unions in the country, affiliated to a party or otherwise, have
played very important role in deciding the future of government
formation at the centre and the states and it is important that we take
this historic opportunity to assert our militant unity and radical
positions and re-emphasise the importance of social movements and its
political views outside of the electoral politics.
Discussions
within social movements, trade unions and the larger left constituency,
in the context of the 2014 parliament elections in India, must bring in
debates and dialogues around the leading political parties along with
an analysis of the emerging political trends.
Some of the main positions taken during the meeting were to recognise that:
The
times demand new political coalitions and alliance-building amidst
social movements and between people’s movements and trade unions,
bringing together the diversity of our political history as represented
through the Red, Green and Blue flags! New political formulations that
weave through class, gender and caste, organised and unorganised,
environment and human must be found.
This
coalition must be built on the basic ideological premise of our
collective opposition against global capitalism, brahmanism, feudalism,
patriarchy, religious fundamentalism and jingoistic nationalism.
The
need to effectively tackle and take forward the political resurgence of
the past ten years, since 2004 WSF Mumbai, Sangharsh 2007 and the new
political uprisings since 2000s, like; Nandigram, Singur, Mundra,
Raigad, hilly terrains of Himachal Pradesh and Uttarakhand, Latehar,
Chengara, Haripur, Nayachar, POSCO, Niyamgiri, Odisha and Andhra coastal
regions, Kudankulam, Kalinga Nagar, Jashpur, and Sonbhadra,
Bundelkhand, khiri, Maruti workers, unorganized labour struggles led by
the communities and workers themselves, which are exemplary examples of
this
At
a time when people’s struggles are directed against the state-corporate
nexus, there is a need for building a national joint platform of social
movements and trade unions especially in the context of the upcoming
Lok Sabha elections 2014.
The
battle against patriarchy, and its manifestations in the physical and
structural violence against women, should be strengthened through
strengthening women’s role in family, society, movement and political
dialogue
There
is a historical need to re-assert the lives of leaders of political
resistance and social change, like: Birsa Munda, Tilka Majhi, Sidhu
Kanu, Ayyankali, Periyar, Savitribai Phule, Gandhi, Bhagat Singh,
Ambedkar, Lohia and Jayaprakash Narayan
It
was decided that the efforts to build this sort of a political alliance
must be made immediately, especially in the run up towards General
Elections 2014.
2. The participation of critical mass-based movements in the election process – focus being agenda-setting with movement demands
3. The realisation that movements and groups must engage with greater clarity, in a multi-party political democracy, to put forth our issues, concerns and ideological demands to a cross-spectrum of political groups
4. The realisation that some of the movement groups and leaders have decided to join the electoral process and to contest elections themselves. The situation needs understanding, but should not be allowed the space of political interpretation that all social movements and trade unions are with one political party
5. The realisation that the decades old struggles of social movements & trade unions and centuries old struggles of natural resource-based traditional communities – especially Dalits & Adivasis, have a collective strength that is rooted in the politics of being in the opposition, asserting the rights of people in the fight against the state. This must not be diluted.
Hence,
there is a need to unite our demands and assert the fact that we are
not pleading for legislations or to have our people in parliament or for
our demands to be heard but we are wanting a political dialogue on each
of these issues and will soon be aiming towards drafting a people’s
charter on these lines.
It
was decided to give a call for a national level mobilisation of
representatives, leaders, activists and cultural movements to assemble
in Delhi on the Shaheed Diwas, the commemoration day of the martyrdom of
Shaheed Bhagat Singh and his comrades. The day will mark a political
rally of Adivasi and Dalit groups, forest workers, fishworkers, handloom
weavers, domestic workers, street vendors and hawkers, women’s groups
and organisations that have been working in the country for social and
political change.
संघर्ष-2014 का आह्वान
दिल्ली चलो-दिल्ली चलो
इन्क़लाब जि़न्दाबाद
अमर शहीदों को कोटि-कोटि श्रद्धांजलि
साम्राज्यवाद
का नाश हो
दुनिया के मेहनतकशो एक हो
हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली
ये मुश्त-ए-ख़ाक़ है फ़ानी रहे रहे ना रहे
23 मार्च शहीद दिवस पर विशाल रैली
शहीद पार्क(फिरोजशाह कोटला मैदान) से जन्तर-मन्तर तक
दबेगी कब तलक़ आवाज़-ए-आदम हम भी देखेंगे
रुकेंगे कब तलक़ जज़बात-ए-बरहम हम भी देखेंगे
चलो यूं ही सही ये जोर-ए-पैहम हम भी देखेंगे
साथियो!
23
मार्च को देश के कोने-कोने में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस
दिन आज से 83 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय आज़ादी के क्रान्तिकारी आंदोलन के
पुरोधा शहीद भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने लाहोर सेन्ट्रल जेल में
अंग्रेजी साम्राज्यवाद को चुनौती देते हुए इन्क़लाब जि़न्दाबाद का नारा
बुलन्द करते हुए हंसते-हंसते फांसी का फंदा गले में डालकर शहादत दी थी।
राष्ट्रीय आजादी के आन्दोलनों के लम्बे इतिहास में 23 मार्च का शहादत दिवस
एक महत्वपूर्ण कड़ी है। अंग्रेजी शासक वर्ग और भारत की प्रभुत्ववादी
शक्तियों ने मिलकर एक साजिश के तहत सारे नियम-कानूनों को ताक पर रख कर एक
हड़बड़ाहट के साथ इन तीनों क्रान्तिकारियों का फांसी देने का फैसला लिया।
केवल ये तीन शहीद ही नहीं बल्कि उनके राजनैतिक संगठन हिन्दोस्तान की
समाजवादी प्रजातान्त्रिक संगठन (हिसप्रस) के कई अन्य महत्वपूर्ण साथियों को
भी काकोरी कांड के तहत इसी दौर में जल्दबाजी में फासी की सजा दी गई थी।
जिनमें प्रमुख नाम रामप्रसाद बिस्मिल, अश़फाक उल्ला खां, राजेन्द्रनाथ लहरी
व रोशन सिंह थे। हिसप्रस के सर्वोच्च नेता चन्द्रशेखर आज़ाद भी इसी दौर
में इलाहाबाद में हुई एक मुठभेड़ में शहीद हुए थे। नेतृत्वकारी साथियों के
शहीद हो जाने से बाद में हिसप्रस भी खत्म हो गई थी। आखिर क्या वजहा थी, कि
इन क्रान्तिकारी नौजवानों को मिटाने के लिए अंग्रेज शासक और भारत की
प्रभुत्ववादी शक्तियों में इतनी हड़बड़ाहट थी? इन क्रान्तिकारी साथियों को
श्रद्धांजलि देते वक्त हमें इसके कारणों को भी समझना होगा। क्योंकि ये
नौजवान ना तो किसी बड़े घराने से तआल्लुक रखते थे, ना इनका संगठन इतना
ताकतवर दिखने वाला था और ना ही वे विलायत से उच्च शिक्षा प्राप्त कर के आए
हुए साहबज़ादे थे। दरअसल अंग्रेजी शासकवर्ग उनके क्रान्तिकारी विचार और उन
विचारों के प्रति निष्ठा और अदम्य साहस से बौखला गए थे व भयभीत हो गए थे।
वो एक ऐसा वक्त था जब भारत की मुख्यधारा की राजनीति के नेतागण अपनी
समझौतावादी राजनीति के चलते अंग्रेजों के साथ समझौते की प्रक्रिया शुरू कर
रहे थे। जलियांवाला बाग के सुनियोजित नरसंहार के बाद देश का तत्कालीन
नेतृत्व साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन से हटकर बगैर टकराहट की राजनीति को
अपना रहा था, जिससे आम जनता में मायूसी छा रही थी। इसी मायूसी के अन्दर से
निकलकर एक नयी नौजवान क्रान्तिकारी पीढ़ी पैदा हुई, जिसने शहीद-ए-आज़म
भगतसिंह और शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद की अगुआइ में अंग्रेजी शासकों को भारत से
भगाने की चुनौती दी थी और अपने राजनैतिक दस्तावेज में आज़ाद भारत की
राष्ट्रीय आज़ादी के लिए राजनैतिक कार्यक्रम भी दिए थे। जिससे देश के
करोड़ों गरीब, किसान, मजदूर और नौजवानों में एक नयी उम्मीद ंजगी थी और
दूसरी ओर जिससे अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिल गई थीं और इसी स्थिति से
घबराकर इन्होंने पूरी बेरहमी के साथ इन क्रान्तिकारी नौजवानों की संगठित
हत्या की थी। ठीक इसी तरह 18वी और 19वी शताब्दी में इन्होंने देश के
आदिवासी महानायकों तिलका माझी, सिद्धु-कानू, सीतारमैया राजू व बिरसा मुंडा
की भी हत्या की थी। इन क्रांतिकारियों को तो अंग्रेजों ने शहीद कर दिया
लेकिन इनके विचारों को वे शहीद नहीं कर पाए, जो कि देश के कोने-कोने में
फैल गए और जो आज भी भारत और पाकिस्तान की हर नयी पीढ़ी को प्रेरित करते हैं
व एक शाश्वत शक्ति की तरह आज भी मौज़ूद हैं। इन महान क्रांतिकारियों का
दिया हुआ इंक़लाब जि़न्दाबाद का नारा आज भी भारत-पाकिस्तान के तमाम
गाॅवों-शहरों में हर आंदोलन में गूंजता है। साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में
शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनके साथियों ने भारत नौजवान सभा और बाद में
हिसप्रस के ज़रिये से एक स्पष्ट राजनैतिक विचार को स्थापित किया था, जिसने
बाद में वामपंथी आंदोलन को भी एक नई ज़मीन दी थी। उन्होंने इससे पहले के
अंग्रेज़ विरोधी क्रान्तिकारी जो कि ज़्यादहतर धार्मिक भावनाओं के आधार पर
प्रेरित होते थे, उनसे अलग हटकर एक वैज्ञानिक और तार्किक वामपंथी विचारधारा
की परम्परा शुरू की थी, जो कि आज भी प्रासंगिक है। खासकर उन्होंने अपने
बलिदान को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करके एक नया प्रयोग किया
था, जो कि अनोखा था व जिसे बाद में अन्य क्रान्तिकारियों ने भी
अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर अपनाया। इसी वास्ते शहीद भगतसिंह को शहीद-ए-आज़म
की आख्या मिली थी, आज भी वे जनमानस में 23 साल के एक नौजवान के रूप में ही
जिन्दा हैं।
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे दिल पे निसार
तेरी कुरबानी का चर्चा गैर की महफिल में है -शहीद रामप्रसाद बिस्मिल
जिस राजनैतिक संकट
की परिस्थितियों का सामना इन महान क्रान्तिकारियों ने किया था और एक सही
आज़ादी के लिए एक नये आंदोलन का मार्गदर्शन किया था, वह आज भी उतना ही
प्रासंगिक है जितना कि उस समय में था। आज़ादी के 67 साल बाद भी आज वैसा ही
राजनैतिक संकट और अनिश्चयता देश में फैली हुई है। आज भी देश की मुख्यधारा
के राजनैतिक नेतृत्व समझौतावादी राजनीति का शिकार हैं और साम्राज्यवाद,
पूंजीवाद और सामंतशाही के सामने घुटने टेक रहे हैं और इस विशाल देश के अपार
संसाधनों और मानव शक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के सामने गिरवी
रखने के लिए तैयार हैं। जनशक्तियों को ताकतवर बनाने के बजाए
अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवाद, सामंतशाही और पितृसत्तावाद को ताकतवर बना रहे
हैं। जिसके कारण देश के करोड़ों मेहनतकश और वंचित लोगों का भारतीय राजनैतिक
नेतृत्व से विश्वास टूट चुका है, चाहे वो सत्तापक्ष हो या विपक्ष हो दोनो
एक ही पाले में खड़े हैं। देश के लोगों की गिरती हुइ हालत से इन्हें कोई
सम्वेदना नहीं है। देश की जनता की आकांक्षाओं को और मांगों को बड़ी बेरहमी
के साथ कुचल रहे हैं। शासन-प्रशासन व्यवस्था लगभग टूट चुकी है और आम जनता
के साथ सम्वादहीनता की स्थिति पैदा हो गयी है। चुनावकाल में इस सम्वादहीनता
को तोड़ने का महज दिखावा भर किया जाता है। वो भी ऊॅचे-ऊॅचे मंचों और
मीनारों से सुरक्षाओं के घेरे में रहकर जनता को झूठी दिलासा देने की कोशिश
की जाती है, लेकिन जनता के लिए कोई कार्यक्रम नहीं बता पाते। केवल नसीहत और
हुंकार भरे प्रवचन ही दिए जाते हैं। जबकि सच्चाई ये है कि इस
शासनिक-प्रशासनिक ढांचे में लोगों का विश्वास नहीं है और ये लगातार टूटता
जा रहा है, जिससे एक अराजकता की स्थिति पैदा हो रही है और ये अराजकता की
स्थिति क्या करवट लेगी इसपर भी एक अनिश्चियता बनी हुई है। इस अनिश्चियता की
स्थिति से निकलने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण की ज़रूरत है। ऐसा
दृष्टिकोण जो एक नई व्यवस्था कायम कर सके, एक जनोन्मुखी व्यवस्था को कायम
करना इस समय सर्वोपरि है। ऐसी व्यवस्था केवल समाजवादी प्रजातांत्रिक
व्यवस्था ही हो सकती है। महान क्रान्तिकारियों का विचार भी ऐसा ही था।
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और उनके संगठन का यही मानना था कि साम्राज्यवाद,
सामन्तवाद और पूंजीवाद से सम्पूर्ण मुक्ति के लिए समाजवादी प्रजातांत्रिक
व्यवस्था क़ायम करना ज़रूरी है। स्मरण रहे कि राष्ट्रीय आज़ादी आन्दोलन में
सर्वप्रथम इसी संगठन ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था की स्थापना का राजनैतिक
दृष्टिकोण रखा था, उन्होने स्पष्ट रूप से कहा था यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था
समाजवादी लक्ष्य के साथ ही होनी चाहिए अर्थात बिना समाजवादी विचारों के
प्रजातांत्रिक व्यवस्था टिकाऊ नहीं हो सकती और ना ही मेहनतकश तबकों को
ताकतवर बना सकती है। यह विचार आज और भी ज्यादा प्रासांगिक है। पूंजीवादी
व्यवस्था कोइ प्रजातान्त्रिक व्यवस्था नहीं दे सकती, क्यूंकि आज वैश्विक
पूंजीवाद खुद ही भारी संकट में है और इसने जनता के ऊपर किए जा रहे दमन को
और बढ़ा दिया है। इसी संकट और दमन से मुक्ति पाने के लिये आज के दौर में
समाजवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम करने के विचारों को पुख्ता करना
पडेगा और व्यापक जनमानस में इस विचार को स्थापित करना होगा। चूंकि कोई
राजनैतिक संगठन और यहां तक की मंुख्यधारा के वामपंथी राजनैतिक दल भी इस
महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाने के लिये तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में
जनसंगठनों को जो कि मेहनतकश और वंचित तबकों के लिए संघर्षशील हंै, उन्हे ही
इस जिम्मेदारी को लेना पडे़गा, जनसंगठनों को सम्मिलित होकर इसी विचार को
स्थापित करने के लिए एक जुझारू संघर्ष को सचेतन रूप से शुरू करना पडे़गा और
इस राजनैतिक पहल से ही एक नए राजनैतिक संगठन का उदय होगा, जो आगे इस लडाई
को अपनी मंजिल तक ले जायेगा।
साथियो! इन्हीं
उद्देश्यों को पूरा करने के लिये आज शहीद दिवस पर हम यह वादा करें कि हम सब
मिलकर एक लड़ाकू आन्दोलन की शुरूआत करें, जो कि भारत में एक वास्तविक
समाजवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम करने के लिए निर्णायक संघर्ष होगा।
बिना जन-राजनैतिक आन्दोलन के कोई नई राजनैतिक प्रक्रिया शुरू नहीं हो सकती
है, ऐसा ही सबक हमें उन महान क्रान्तिकारी शहीदों ने दिया था, उन्होंने
ऐसेम्बली हाल में बम फेंकते हुए जो पर्चा हवा में उड़ाकर बांटा था, उसमें
उन्होंने स्पष्ट नारा दिया था कि ‘‘बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाके की
ज़रूरत होती है’’ आज हमें उसी नारे को आगे ले जाना है। इस काम को शुरू करने
के लिए सर्वप्रथम सभी जनसंगठनों को सामूहिक रूप से अपनी मागों को व्यापक
जनता के सामने प्रस्तुत करना होगा, जिनके आधार पर एक राजनैतिक कार्यक्रम की
शुरुआत की जायेगी।
शहीद दिवस के अवसर
पर हम सभी संगठन मिलकर अपनी मांगों को प्रस्तुत करेंगे जिसमें सभी
संघर्षशील जनसंगठनों के साथियों की भागीदारी अति आवश्यक है। आपसे अपील है
कि शहीद दिवस के कार्यक्रम में शामिल होकर अमर शहीदों के विचारों को
स्थापित करने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु हज़ारों की संख्या में
रैली में भाग लें।
इंकलाब जि़न्दाबाद
ये हंगाम-ए-विदा-ए-शब है अय ज़ुल्मत के फ़रज़न्दो
सहर के दोश पर गुलनार परचम हम भी देखेंगे
तुम्हें भी देखना होगा ये आलम हम भी देखेंगे -साहिर
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन, राष्ट्रीय मछुवारा संघ, राष्ट्रीय हाकर्स फेडरेशन,
कृषक मुक्ति संग्राम समिति-असम, दिल्ली समर्थक समूह।
हमारी मांगें है:
ऽ आजीविका की सुरक्षा; संसाधनों की सुरक्षा।
ऽ प्राकृतिक सम्पदाओं के ऊपर सरकारी मालिकाना के बदले सामुदायिक स्वशासन; ।
ऽ परम्परागत उत्पादक/दस्तकारों की सुरक्षा।
ऽ भूमि
अधिग्रहण कानून का रद्दीकरण और वास्तविक ज़मीन जोतने वालों का भूमि
अधिकार, आवासीय भूमि का अधिकार, सीलिंग और सरकारी ज़मीनों का भूमिहीनों में
वितरण।
ऽ जमीन एवं प्राकृतिक सम्पदाओं पर महिलाओं का अधिकार
ऽ सत्ता का विकेन्द्रीयकरण; ग्रामसभा तथा मौहल्लासभा (शहरों एवं कस्बों) के सशक्तिकरण।
ऽ उद्योगों में ठेका-मज़दूरी प्रथा को समाप्त करना और श्रमिकों को नियमित करना।
ऽ समस्त हाकर्स के सार्वजनिक स्थानों पर सम्मान पूर्वक आजीविका के अधिकार को सुनिश्चित करना।
ऽ यूनियन, संघ बनाने के अधिकार को सुरक्षित करना।
ऽ विपक्षीय और त्रिपक्षीय सामूहिक समझौते की प्रकिया को मजबूत करना।
ऽ समस्त श्रमजीवियों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना पूर्णतया लागू करना, सम्मान पूर्वक वृद्धा पेंशन योजना को लागू करना।
ऽ सम्मान से जीने लायक वेतन सुनिश्चित करना।
ऽ बिना विस्थापन के औद्योगीकरण नीति तय करना।
ऽ निजी कम्पनी-सरकारी सहभागिता प्रोजेक्टों को समाप्त करना और सार्वजनिक उद्योगों को मज़बूत करना।
ऽ समस्त बड़ी कम्पनियों द्वारा बैंक से लिए गए कर्जों को सरकारी वित्तीय संस्थानों द्वारा समयबद्ध वापस लेना।
ऽ समस्त वंचित तबकों के लिये सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना (राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक)।
ऽ सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ सख्त कानून लागू करना।
ऽ सभी
के लिये शिक्षा सुनिश्चित करना, सरकारी स्कूलों को नियमित रूप से चलाना,
शिक्षा के निजीकरण को रोकना, ब्लाॅक/ताल्लुका स्तर पर तकनीकी शिक्षा प्रदान
करने की व्यवस्था करना।
ऽ गाॅव स्तर तक प्रभावी स्वास्थ सेवायंे सुनिश्चित करना।
ऽ शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करना।
ऽ उर्जा की वितरण प्रणाली तथा प्रयोग में जनवादीकरण सुनिश्चित करना।
ऽ निरस्त्रीकरण और पडोसी देशों के साथ शान्ति क़ायम करना।
ऽ गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को पुनः स्थापित करना।