मौजूदा राजनैतिक परिस्थिति और आम चुनाव 2014 ‘‘सामाजिक और श्रम आंदोलनों की नई पहल’’
9 फरवरी 2014, लखनऊ, उत्तरप्रदेश
सर्व विदित है कि देश के अंदर राजनैतिक परिस्थिति बड़ी तेज़ी से बदल रही है और एक निर्णायक दौर में खड़ी हैं और भारतीय समाज का हर वर्ग इससे प्रभावित हो रहा है। देश में आम चुनाव की तारीख़ नज़दीक आने के साथ-साथ राजनैतिक माहौल में इस वक़्त काफी उथल-पुथल मची हुई है। यहां तक कि महामहिम राष्ट्रपति भी इस उथलपुथल की लपेट में आ गए। परिस्थिति को लेकर व्यापक चर्चाएं भी शुरू हो गई हैं। हमेशा चुनावी दौर एक ऐसा वक़्त होता है, जिसमें राजनैतिक दायरा बढ़ जाता है और मौज़ूदा राजनैतिक दलों के बीच समझौते होते हैं व पार्टी और लोगों के बीच भी वार्ता की परिस्थितियां बनती रहती हैं। साथ ही साथ सामाजिक दायरे में भी अलग-अलग तबकों के बीच वार्ताए होती रहती हैं। ऐसा आभास हो रहा है, कि 2014 में होने वाले आम चुनाव देश के भविष्य के लिए एक निर्णायक भूमिका निभाऐंगे।
इस समय देश के लगभग हर कोने में किसी न किसी मुद्दे पर जनांदोलन चल रहे हैं। चाहे वो अपनी आजीविका की सुरक्षा के लिए हों, प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के संघर्ष हांे, महिला हिंसा का विरोध हो, आदिवासी दलितों पर किए जा रहे दमन के खिलाफ हों या अल्पसंख्यकों और खासकर मुस्लिम समुदाय पर साम्प्रदायिक हमले के खिलाफ़ हों। इन सभी मुद्दों पर देशभर में जनांदोलन ज़ारी हैं और ध्यान दिया जाए कि इन सभी समस्याओं का सम्बन्ध सीधा सरकार के साथ है। एक तरह से आंदोलनरत क्षेत्रों में चाहे ग्रामीण क्षेत्र हों या फिर शहरी क्षेत्र हों जनता के साथ सरकार का टकराव साफ-तौर पर सामने आ रहा है और इस टकराव के मुख्य कारण सरकारों की जनविरोधी आर्थिक नीतियां, राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव और ग़लत शासन प्रणाली हैं। इन्हीं मुद्दों पर आम जनता भी उद्धेलित है और व्यवस्था में एक बुनियादी परिवर्तन की मांग कर रही है। लेकिन देश की प्रमुख राजनैतिक शक्तियां जनता में उठ रही इस परिवर्तन की मांग को लेकर पूरी तरह से संवेदनहीन हैं। इसलिए अब जनता और राजनैतिक शक्तियों के बीच भी टकराव हो रहा है। जनता अब आश्वासन या पैकेज से संतुष्ट नहीं होगी। वो अब एक ठोस एवं व्यवहारिक परिवर्तन देखना चाहती है। लीपा पोती से अब काम नहीं चलने वाला, ये मंज़र साफ़तौर पर सामने आ रहा है । राजनैतिक क्षेत्र की पार्टियों में भी इस सच्चाई का आभास है, लेकिन वे खुलकर अपनी विफ़लता की सच्चाई को मान नहीं पा रही हैं, कि यह राजनैतिक आर्थिक व्यवस्था अब और चल नहीं सकती। यहां तक कि राष्ट्रपति महोदय ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश की जनता के लिए दिए गए अपने सम्बोधन में इस बात को क़ुबूल किया कि ‘‘अब राजनैतिक क्षेत्र में पाखंडता और दिखावा नहीं चलेगा’’। उल्लेखनीय है कि वे खुद अब से 18 महीने पहले तक एक लम्बे अरसे से शासन में रहे हैं। प्रमुख राजनैतिक दल परिवर्तन की इस आहट से सशंकित हैं और इसे वे अराजकता का नाम देकर दरकिनार करना चाह रहे हैं। राष्ट्रपति महोदय ने अपने अभिभाषण में कल्याणकारी राज्य को ‘‘दान देने वाली दुकान’’ कह कर नकारा है और विरोध करने के जनवादी अधिकार को भी। अर्थात जनता और सत्ता के बीच के जो द्वन्द्ध हैं, उसे ना स्वीकार कर वे असली मुद्दे से हट रहे हैं और यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि व्यवस्था का संकट महज व्यक्तिगत संकट है। जैसे कि एक नेता की जगह दूसरा नेता आ जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा। और यह शक्तियां चुनावी संघर्ष को व्यक्तिगत नेतृत्व के संघर्ष में ही परिभाषित करना चाहती हैं, यानि या तो मोदी बनाम राहुल या मोदी बनाम केजरीवाल के रूप में दिखाना चाहती हैं। इस तरह से लोगों को भ्रमित करके जनसंघर्षो से निकले हुए मुद्दों को चुनावी दौर में पीछे हटा कर पूंजीवादी और प्रभुत्ववादी शक्तियों के मुद्दों को ही राष्ट्रीय मुद्दा बनाना चाहती हैं। यह पहला मौका है जब सत्ता की दावेदार एक पार्टी खुलकर पूंजीवाद और धार्मिक राष्ट्रवाद की तरफदारी कर रही है और सत्ताधारी पार्टी पूंजीवादी लूट को विकास का नाम देकर देश को आगे बढ़ाने की बात कर रही है। सत्ता के इन बड़े दावेदारों के पास आम जनता का मुद्दा कोई मायने नहीं रखता है। ये देश की तमाम सम्पदा और लोगों को बड़ी बेशर्मी के साथ पूंजीवाद के हवाले करना चाहते हैं। ज़्यादहतर क्षेत्रीय दल भी इसी ढर्रे पर चल रहे हैं। मुख्य राजनैतिक पार्टियों और आम जनता के बीच एक दूरी बनी हुई है। जिसके चलते सामाजिक आंदोलन के आधार पर नये राजनैतिक दल का गठन भी हो रहा है। हांलाकि यह दल अभी भी पूरी तरह अपने राजनैतिक स्वरूप को जनता के समक्ष रख नहीं पाया है, लेकिन इसने एक सकारात्मक उत्साह ज़रूर पैदा किया है। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी समझना ज़रूरी है, कि यह नया राजनैतिक दल कई सामाजिक आंदोलनों को समाहित कर उस जगह को संकुचित कर रहा है। सामाजिक आंदोलन की जगह और एक स्वतंत्र परिसर जनराजनैतिक पहल के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना एक जनपक्षीय राजनैतिक दल का बनना और इसलिए स्वतंत्र सामाजिक क्षेत्र को सुरक्षित रखना बेहद जरूरी है। ताकि विविधतापूर्ण सामाजिक दायरे में जनवादी प्रक्रिया को मज़बूत किया जा सके। सामाजिक प्रक्रिया और चुनावी प्रक्रिया कभी एक गति से नहीं चलते।
देखा जाए तो 1977 में आपातकालीन स्थिति के आखिरी दौर में जो स्थिति बनी थी लगभग ऐसी ही स्थिति इस बार भी पैदा हो गई है। उस वक्त भी लोग सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ सड़क पर आ गए थे, लेकिन वैकिल्पक राजनीति के लिए किसी राजनैतिक शक्ति ने, खासतौर पर वामपंथी ताकतों ने भी मजबूती से उस राजनैतिक परिस्थिति में दख़ल नहीं दिया था। मज़दूर और सामाजिक आंदोलन भी कोई विशेष दख़लअंदाज़ी नहीं कर पाए थे, नतीजतन दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक शक्तियां उस प्रक्रिया पर हावी रहीं और उसके बाद कुछ अपवाद छोड़कर जो भी सरकारें सत्तासीन हुईं, उन्होंने जनविरोधी नीतियों को ही चलाया। कुछ सालों बाद कांग्रेसी सरकार फिर सत्ता में आई और अंततोगत्वा 90 के दशक में उदारीकरण की नीति को लागू करके देश की तमाम श्रमशक्तियों को दरकिनार किया और पूंजीवादी और साम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा दिया।
वक़्त का तकाज़ा है कि तमाम जनांदोलन सामाजिक आंदोलन तथा स्वतंत्र मज़दूर आंदोलन जो कि देश की अलग-अलग जगहो में आंदोलनरत हैं, उन्हें भी इस मौके पर राजनैतिक पार्टियों तथा समूहों के साथ अपनी मांगों को लेकर मज़बूती से बातचीत शुरू करनी चाहिए। लेकिन राजनैतिक पार्टियों से बातचीत शुरू करने से पहले तमाम आंदोलनों एवं संगठनों के बीच आपसी तालमेल व बातचीत बहुत ज़रूरी है, ताकि हम कोई सामूहिक और सार्थक प्रयास शुरू कर सकें। सामुहिकता के बग़ैर अलग-अलग तरीके से हम कोई प्रभावी कदम नहीं उठा सकते। आंदोलनों के अंदर एवं मांगों में जो विविधताएं हैं, उन्हें समाहित करना निहायत ज़रूरी है। इन दिनों एक प्रमुख जनआंदोलन के समूह ने अपने आप ही निर्णय लेकर इस नई राजनैतिक प्रक्रिया में खुद को सीधे शामिल कर लिया व सामाजिक आंदोलन में किसी हद तक एक संकट पैदा किया है। अब ज़रूरत इस बात की है कि अब सामाजिक एवं श्रम आंदोलन मिल कर आंदोलन के प्रतिनिधित्व में एक व्यापकता लाऐं ताकि इस तरह का संकट फिर पैदा न हो।
राजनैतिक पार्टीयों से बातचीत का आधार ‘‘पहले दो फिर लो’’ के सिद्धांत पर ही आधारित होना चाहिए। इसके लिए हमें देश में और अलग-अलग क्षेत्रों में मौजूदा विद्यमान राजनैतिक परिस्थितियों का वस्तुगत आकलन करना चाहिए। साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे जनांदोलनों का भी एक वास्तिविक जायज़ा लिया जाना चाहिए। दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ने राजनैतिक हलके में एक जबरदस्त हलचल पैदा की है। अहम् बात यह है, कि वंचित तबकों में काम करने वाले सामाजिक और राजनैतिक आंदोलनों के बहुतायत साथियों में भी इस चुनाव के परिणाम ने एक परिवर्तन की उम्मीद जगाई है। अख़बार और इलैक्ट्रानिक मीडिया में भी इस परिणाम और उसके असर के विषय में टिप्पणियां और विश्लेषण छाए हुए हैं। रातों रात ‘‘आप’’ मीडिया में छा गई। ऐसे परिवर्तन की उम्मीद हमेशा उत्साहजनक होती है, लेकिन साथ-साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि अख़बारों की रिर्पोटों से हम इस भावना में कहीं बह न जाएं। हमें इस परिवर्तन के बारे में सकारात्मक रहते हुए वस्तुगत स्थिति को गंभीरता से जांचना चाहिए। नकारात्मक सोच हमें मदद नहीं करेगी। आखिर हम आंदोलनकारी लोग कोई विशेषज्ञ नहीं होते हैं, बल्कि सक्रिय जनसंगठनों के कार्यकर्ता होते हुए हमें व्यवहारिक रूप से इस घटनाक्रम को देखना होगा। हम सभी जानते हैं कि इस विशाल देश में राजनैतिक प्रक्रिया को एक ही तरह से नहीं देख सकते हैं, बल्कि क्षेत्रीय विविधताओं के आधार पर देखना होगा। लेकिन फिर भी इन विविधताओं के बीच विद्यमान एक सूत्र को देखना ज़रूरी है। क्योंकि तमाम विविधताओं के बीच जनांदोलनों में तालमेल स्थापित करके ही आंदोलनों का एक सामूहिक राजनैतिक स्वरूप बनता है। वरना यह आंदोलन अपने-अपने क्षेत्र में सशक्त होते हुए भी व्यापक राजनैतिक पटल पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाएंगे । इन आंदोलनों का दायरा क्षेत्रीय स्तर पर ही सीमित रह जाता है, इसलिए राजनैतिक सत्ता के सामने यह चुनौती नहीं बन पाते हंै और हमेशा असुरक्षित रहते हैं। आंदोलन भौगोलिक रूप से क्षेत्रीय हो सकते हैं, लेकिन राजनैतिक मांग व्यापक दायरे में ही की जा सकती है, इसलिए राजनैतिक मांगों के लिए सामूहिक प्रयास बेहद ज़रूरी है।
सर्वप्रथम हमें अपने संगठन के सदस्यों और तमाम आंदोलनों के प्रतिनिधियों के बीच सलाह-मशवरा करना होगा। हमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनैतिक परिस्थितियों को जनआंदोलन के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष अनुभव के चश्मे से देखना होगा। यह उन क्षेत्रों के लिए और भी ज़्यादा ज़रूरी है, जहां पर समुदाय और सरकार के बीच सीधा टकराव है। ऐसे क्षेत्र में जनसंगठन संघर्षशील जनता के साथ सीधे तौर पर जुड़े रहते हैं और जहां मुख्य राजनैतिक पार्टियां सरकार के साथ होती हैं और जनता से एक अलगाव रखती हैं। अन्य और नई राजनैतिक शक्तियों को भी इस वस्तुगत राजनैतिक टकराव के आधार पर अंकलित करना होगा। क्या यह शक्तियां सिर्फ सरकारी दाता के रूप से आ रही हैं, जैसे कि मुख्य राजनैतिक पार्टियां करती रही हंै, या फिर आंदोलन की जो मांगें व संघर्ष हैं, उनके समर्थन में आ रही हैं। ऐसे क्षेत्र के लिए यह समझना ज़रूरी है कि इन क्षेत्रों में संघर्षशील जनता के अंदर एक राजनैतिक चेतना बन चुकी है और वो हर तरह के शोषण के खिलाफ मुक़ाबला करने के लिए तैयार है। अर्थात वो किसी के रहम-ओ-करम पर नहीं रहना चाहती है। ऐसे मुद्दों पर हमारे लिए राजनैतिक तबकों के साथ भी बातचीत करना ज़रूरी है, ताकि इन बुनियादी मुद्दों को व्यापक राजनैतिक चर्चा में शामिल किया जा सके। चुनाव का वक़्त ऐसी चर्चा शुरू करने का एक मौका देता है। इसके लिए यह ज़रूरी है कि हम सर्वप्रथम अपने आंदोलनों के बीच मौज़ूदा राजनैतिक परिस्थिति के बारे में चर्चा करें, ताकि आगामी आम चुनाव के लिए कोई सामूहिक जनकार्यक्रम तय किए जा सकें।
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल जो आंख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है
-मिजऱ्ा असद् उल्ला खां ‘‘ग़ालिब’’ (सन् 1857 के दौर में तब के राजनैतिक हालात् पर)
अभियान के लिये प्रमुख मुद्दे (सुझाव):-
ऽ आजीविका की सुरक्षा; संसाधनों की सुरक्षा।
ऽ प्राकृतिक सम्पदाओं के ऊपर सरकारी मालिकाना के बदले सामुदायिक स्वशासन; ।
ऽ परम्परागत उत्पादक/दस्तकारों की सुरक्षा।
ऽ भूमि अधिग्रहण कानून का रद्द और वास्तविक जमीन जोतने वालों का भूमि अधिकार; आवासीय भूमि का अधिकार, सीलींग और सरकारी जमीनों का भूमिहीनों में वितरण।
ऽ जमीन एवं प्राकृतिक सम्पदाओं पर महिलाओं का अधिकार
ऽ सत्ता का विकेन्द्रीयकरण; ग्रामसभा तथा मौहल्लासभा (शहरों एवं कस्बों) के सशक्तिीकरण।
ऽ उद्योगों में ठेका-मजदूरी प्रथा को समाप्त करना और श्रमिकों को नियमित करना।
ऽ यूनियन, संघ बनाने की अधिकार को सुरक्षित करना।
ऽ विपक्षीय और त्रिपक्षीय सामुहिक समझोैते की प्रकिया को मजबूत करना।
ऽ समस्त श्रमजीवीयों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना पूर्णतय लागू करना, सम्मान पूर्वक वृद्धा पेंशन योजना को लागू करना।
ऽ सम्मान से जीने लायक वेतन सुनिश्चत करना।
ऽ बिना विस्थापन के उद्योगीकरण नीति तय करना।
ऽ निजी कम्पन्नी-सरकारी सहभागिता प्रोजेक्टों को समाप्त काना और सार्वजनिक उद्योगों को मजबूत करना।
ऽ समस्त बड़ी कम्पन्नीयों द्वारा बैंक को सरकारी वित्तीय संस्थानों से समयवद्य वापस लेना।
ऽ समस्त वंचित तबकों के लिये सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना (राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक)।
ऽ सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ सख्त कानून लागू करना।
ऽ सभी के लिये शिक्षा सुनिश्चित करना, सरकारी स्कूलों को नियमित रूप से चलाना, शिक्षा की निजीकरण को रोकना, ब्लाॅक/तालूका स्तर पर तकनीकी शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करना।
ऽ गांव स्तर तक प्रभावी स्वास्थ सेवायंे सुनिश्चित करना।
ऽ शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु स्थानीय समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित करना।
ऽ उर्जा का वितरण प्रणाली तथा प्रयोग में जनवादीकरण सुनिश्चित करना।
ऽ निरस्त्रीकरण और पडोसी देशों के साथ शान्ती कायम करना।
ऽ गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को पुनः स्थापित करना।
अखिल भारतीय वनजनश्रमजीवी यूनियन
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