Thursday, September 27, 2012



शहीदों  के  मज़ारों  पर  लगेंगे  हर  बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का यही बाक़ी निशां होगा
                   -श0 रामप्रसाद ‘बिस्मिल’

भगतसिंह और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष 

                                                                                                                  .......रोमा और अशोक चैधरी

दक्षिण एशिया के पैमाने पर जहां पर दुनिया के सबसे ज्यादा ग़रीब लोग रहते हैं, जिस तरह से पूंजीवाद व नवउदारवादी नीतियों का जाल फैल रहा है उससे इस उपमहाद्वीप पर मानवजाति, पर्यावरण और जीविका का संकट और भी गहराता चला जा रहा है। इसी माहौल में पाकिस्तान व हिन्दुस्तान के कई सामाजिक आंदोलनों व मज़दूर संगठनों ने बीसवीं सदी के महान क्रांतिकारी भगतसिंह जिन्होेंने इस उपमहाद्वीप पर पहली बार विश्व पूंजीवाद को समझा था और साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दी थी, के जन्मदिन 28 सितम्बर पर मनाए जा रहे समारोह के मौके पर लाहौर, पाकिस्तान में उनके नाम से एक स्मारक शादमान चैक, जहां पर उनकी शहादत हुई थी वहां उनके नाम से एक स्मारक स्थापित करने का फैसला लिया है। इन सभी संगठनों का मानना है कि भगतसिंह को केवल हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की दोस्ती, भारतीय राष्ट्रवाद, सिक्ख राष्ट्रवाद के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। बल्कि दक्षिण एशियाई पैमाने पर वे और उनका संगठन ही एक ऐसा संगठन था जिन्होंने अविभाजित भारत व इस उपमहाद्वीप में शोषित समाज को सामंतवादी व्यवस्था, भारतीय अभिजात वर्ग व ब्रिटिश राज से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष किया था । बीसवीं सदी के इस महानक्रांतिकारी को याद करते हुए दोनों मुल्कों के सामाजिक व मज़दूर संगठनों ने मिल कर यह तय किया है कि भगतसिंह के जन्मदिवस पर उनके नाम से यह स्मारक स्थापित करने के साथ विश्व पूंजीवाद के खिलाफ लड़ने के लिए राजनैतिक कार्यक्रम लिए जाऐंगे। चूंकि भगतसिहं ने ब्रिटिश राज से केवल एक मुल्क की आज़ादी के लिए नहीं, बल्कि इस पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के लिए अपनी शहादत दी थी।

भगतसिंह का राजनैतिक जीवन बहुत कम उम्र में शुरू हो गया था जो कि  बहुत थोड़े समय के लिए ही रहा। क्योंकि मात्र साढ़़े तेईस वर्ष की उम्र में उनकी शहादत हो गई थी। लेकिन उनके इस अल्पकालिक राजनैतिक जीवन में उन्होंने देश की आज़ादी के आंदोलन में परम्परा से हट कर क्रांतिकारी आंदोलन को नया स्वरूप दिया था, जो कि बिल्कुल अनोखा था। । जिसकी वजह से भारत में साम्राज्यवादी विरोधी आंदोलन में उन्होंने अपनी एक खास जगह बनाई थी, जोकि आज भी बेहद प्रासंगिक है। इसलिए यह समझना जरूरी है कि जिस इतिहास काल में उनका आगमन हुआ था, उस की विशेषता क्या थी और इन परिस्थितियों को बदलने में उनकी क्या विशेष भूमिका थी। 1920 के दशक में राष्ट्रीय आंदोलन में और खासतौर में पंजाब में कुछ खास घटनाऐं घटी थी, जिसे समझना जरूरी है। प्रथम विश्व महायुद्ध के बाद सम्राज्यवादी शक्तियों ने बहुत अक्रामक रूप ले लिया था जो कि दुनिया के कोने में होने वाले हर विरोध आंदोलन को कुचल रहे थीं, फिर चाहे वे आंदोलन पारम्परिक हो या क्रांतिकारी। सन् 1917 में रूस की क्रांति के बाद किसानों, मज़दूरों और नौजवानों में दुनिया के पैमाने में दुनिया के पैमाने पर एक नई क्रांतिकारी चेतना का जो विकास हुआ, वह उस समय के हमारे देश में चल रहे आज़ादी आंदोलन को भी प्रभावित कर रहे था। पंजाब में किसान  और नौजवानों का एक सशक्त आंदोलन मजबूत होने लगा। इसी एक आंदोलन के तहत अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में बैसाखी के त्यौहार के मौके पर एक जलसे में जमा हुए लोगों पर अंग्रेज़ी सरकार के नुर्माइंदे जनरल डायर ने अंधाधुंध गोली चला कर, असंख्य निहत्थे लेागों की निर्मम हत्या की। गोलियां दस मिनट तक लगातार चलती रही और लाशें बिछती चली गई, पास ही में मौजूद एक कुआं महिलाओं और बच्चों की लाशों से भर गया। यह घटना अंग्रेज़ी काल के अंत को अंजाम देने वाली एक महत्वपूर्ण घटना थी, इसी घटना ने भगतसिंह के साथ-साथ कई नौजवानों, किसान और मज़दूरों में अंग्रेज़ो के खिलाफ प्रतिरोध की ज्वाला को भड़का दिया ।

           जलियांवाला बाग गोलीकांड के कुछ ही दिनों बाद     जलियां वाला बाग का नरंसहार

ठीक इसके बाद साईमन कमीशन के खिलाफ अहिंसक विरोध प्रर्दशन में लाला लाजपत राय जैसे दक्षिणपंथी नेताओं को भी अंग्रेज़ों ने निर्मम रूप से लाठीयां बरसाई जिसमें उनकी शहादत हो गई। ज़ाहिर है इससे भगतसिंह जैसे नौजवान का खून खौल उठा और इस निर्मम हत्या का बदला लेने का विचार उनके अंदर बैठ गया। ऐसे वक्त पर आम जनता राष्ट्रीय नेतृत्व से कुछ ठोस प्रतिरोध आंदोलन की अपेक्षा कर रही थी। लेकिन ठीक इसी समय गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी जो कि तमाम राजनैतिक धाराओं का एक सामूहिक मंच थे बिल्कुल चुप्पी साध कर बैठ गई। सन् 1921 में गांधीजी ने जो असहयोग आंदोलन शुरू किया वो भी उन्होंने अचानक वापिस ले लिया, जिससे साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में एक राजनैतिक शून्यता पैदा हो गई। स्वाभाविक रूप से ही किसान, मज़दूरों और नौजवानों को उससे सरोकार नहीं था, वे अंग्रेज़ों के घमंड़ के खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही चाहते थे। ऐसे में उन्होंने अपने साथीयों के साथ जनरल डायर को मारने की योजना बनाई लेकिन डायर को वे लोग नहीं मार पाए बल्कि उसके सहयोगी जर्नल सान्डर्स की उन्होंने हत्या की। इस कार्यवाही से उन्हें जनसमर्थन भी मिला और ऐसी राजनैतिक परिस्थिति में भगतसिंह का उदय हुआ और उन्होंने अंग्रेज़ी हुकुमत को सीधी चुनौती दी।

इस घटना से न केवल पंजाब बल्कि पूरे देश के नौजवानों में एक नई उर्जा पैदा हुई, जोकि मुख्य धारा की निष्क्रियता को खत्म करके एक क्रांतिकारी आंदोलन को शुरू करना चाहते थे। भगतसिंह इस क्रांतिकारी विचार के एक नए नायक के रूप में उभर कर लोगों के सामने आए। हांलाकि जनरल सांडर्स के शत्रुवद्ध की कार्यवाही एक तात्कालिक कार्यवाही थी, लेकिन इसी के साथ भगतसिंह की क्रांतिकारी राजनैतिक जीवन की शुरूआत हुई, जो कि कुछ ही साल में बहुत तेज़ी से विकसित हो कर समझौतावादी राजनीति को भी गंभीर चुनौती देने में कामयाब हुई और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के लिए एक राजनैतिक एजेड़ा भी तैयार होने लगा।

प्रो0 चमनलाल द्वारा संपादित भगतसिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज़ में इस बात को सम्पादकीय में उल्लेख किया गया है, कि वास्तव में 1857 से 1947 तक चले क्रांतिकारी आन्दोलन में उपनिवेशवाद व सामंतवाद विरोधी स्पष्ट इन्कलाब आंदोलन दो ही थे, सन् 1914 का गदर आंदोलन व 1928-31 का भगतसिंह व आज़ाद के नेतृत्व में हिन्दोस्तान सोशिलिस्ट प्रजातांत्रिक संगठन (हिसप्रस) आंदोलन। 1914 का गदर पार्टी आंदोलन पहली बार स्पष्ट वैचारिक क्रांति का स्वरूप साथ लेकर आया। सही मायनों में यह आंदेालन पूरी तरह से उपनिवेशवाद विरोधी व सामंतवाद विराधी था, जिसमे लाला हरदयाल जैसे प्रखर बौद्धिक चिंतन वाले बुंद्धिजीवी भी जुड़े थे और करतारसिंह सराभा जैसे अल्पायु क्रांतिकारी युवा भी।
   

                                                                 करतार सिंह सराभा      

                                                           
उस समय की परिस्थिति का सही आंकलन बाद में शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के वरिष्ठ राजनैतिक साथी का0 सोहन सिहं जोश ने दुनिया के सामने रखा। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि भगतसिंह के राजनैतिक सफ़र के बारे में सही समझदारी केवल जनरल सांडर्स  के उपर की गई प्रतिशोधात्मक कार्यवाही से नहंी की जा सकती, बल्कि उसके बाद की प्रक्रीया जिसमें भगतसिंह का अपना राजनैतिक करण बहुत सशक्त हुआ, उसे समझना जरूरी है। उस समय भगतसिंह ने अपने क्रांतिकारी विचारों को मजबूत करने के लिए गंभीर अध्ययन, लेखन का काम शुरू किया और साथ ही साथ सांगठिनक प्रक्रिया को भी मजबूत किया। उसी दरमयान उन्होंने नौजवान सभा का गठन शुरू किया, जिसका घोषणपत्र उन्होंने खुद लिखा था जो कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का आज भी मुख्य दस्तावेज़ है। इसी दस्तावेज़ में राजनैतिक आज़ादी हासिल करने की घोषणा की और तत्पश्चात राष्ट्रीय आज़ादी आंदोलन का एक राजनैतिक कार्यक्रम भी लिया। ज्ञात रहे कि उस समय तक कांग्रेस ने राजनैतिक आज़ादी की मांग नहीं उठाई थी और उनके द्वारा केवल सीमित आर्थिक आज़ादी का मांग ही प्रमुख रूप से रखी जाती थी। भारतीय पूंजीपति वर्ग जिनका जन्म और विकास अंग्रेज़ी शासनकाल में ही हुआ था, आंर्थिक आज़ादी की मांग को लेकर कांग्रेस का पूरा समर्थन करते थे। उसी तरह सांमती शक्तियां भी लड़ाकू किसान आंदोलन के दबाव से बचने के लिए कांग्रेस के साथ जुड़ रही थी। इससे पहले सामंती तबका खुले रूप से ब्रिटिशराज के साथ था। भगतसिंह और उनके साथीयों की पहल पर राजनैतिक आज़ादी की मांग पहली बार मजबूती से उठी। जिसके कारण कांग्रेस पार्टी को सन् 1929 में राजनैतिक आज़ादी की मांग को लाहौर सम्मेलन में पारित करना पड़ा  और यह प्रस्ताव कांग्रेस के प्रगतिशील ग्रुप के नेता जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में पंजाब के प्रमुख राजनैतिक केन्द्र लाहौर में लिया गया था। इस बात से यह स्पष्ट था कि कांग्रेस के उपर क्रांतिकारीयों का जबरदस्त राजनैतिक दबाव  था।

                                                                        जनरल डायर

इस बात को प्रो0 चमनलाल ने भी वर्णन कि ‘भगतसिंह क्रांतिकारी जीवन व्यवहार को देखे तो स्पष्ट होता है कि जीवन के अंतिम दो अढाई वर्षो में जिनते भी एक्शन उन्होंने किए सोच समझकर किए और उनमें सोची समझी सुनियोजित सफलता भी प्राप्त की। ये एक्शन हैं - सांडर्स की हत्या, केन्द्रीय असेम्बली में बम फैंकना और गिरफ्तारी देना, जेल में भूख हड़ताल का हथियार व आदलतों को राजनैतिक प्रचार का मंच बना कर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के क्रूर चेहरे के वास्तविक रूप का उघाड़ना। और इसके साथ ही भगतंिसह ने फांसी के रूप में अपनी मृत्यु को भी सुनियोजित राजनैतिक एक्शन के रूप में चुना था जिससे पूरे देश में एक सजग राजनैतिक आंदेालन विकसित होने की अपेक्षा थी। इन सब एक्शन में उन्होंने अपेक्षाकृत ज्यादा सफलता हासिल की और ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अपनी योजना के तहत सफलता पूर्ण इस्तेमाल किया। यह पहली बार था कि किसी क्रांतिकारी मस्तिष्क ने एक उपनिवेशवाद यंत्र को अपनी योजना के तहत चलने पर मजबूर किया।’
                                                                       राजगुरू

राजनैतिक गतिविधियों के साथ साथ भगतसिंह ने सामाजिक गैरबराबरी के मुददों पर भी अपने विचारों को गंभीरता से रखा। 1925 में 18 साल की उम्र में उनका महत्वपूर्ण लेख ‘अछूत समस्या के बारे में’ प्रकाशित हुआ। इस लेख को उन्होंने विद्रोही नाम से लिखा था। इस लेख में उन्होंने जातिवादी समाज की बुनियाद को तोड़ कर एक समतावादी समाज की अवधारणा को लोगों के सामने रखा और अछूत समाज की राजनैतिक संगठन के निर्माण के लिए क्रांतिकारीयों के कार्यक्रम का भी विचार रखा। उन्होंने बहुत स्पष्ट समझ से कहा था कि ‘‘क्रांतिकारीयों का कर्तव्य यह है कि अछूत एवं वंचित समाज की अपने संगठन बनाने में भरपूर मदद करे’’। यह घोषणा जातिवाद के खिलाफ एक जंग का ऐलान थी, जो पहली बार भारत के राजनैतिक आंदोलन के पटल पर आया था। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि अगले दशक में पिछड़े और वंचित समाज के आंदोलनों के जनक बाबा भीमराव अम्बेडकर ने यह ऐतिहासिक नारा दिया था कि ‘ शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ जोकि भगतसिंह के विचारों से बिल्कुल तालमेल खाता है, जो कि उन्होंने तीस के दशक में कहे थे। इसी तरह सांमती संस्कृति और नारी विरोधी मानसिकता के खिलाफ भी उन्होंने गंभीर सवाल उठाए। भगतसिंह के विचारों में राजनैतिक और सामाजिक आज़ादी की दोनों तत्व ही बहुत मजबूत थे, इतनी कम उम्र में सीमित शिक्षा के बावजूद भी उनकी क्रांतिकारी सोच अभूतपूर्व थी। जोकि आने वाले ज़माने में कई पीढि़यों को और विशेषकर नौजवानों को राजनैतिक और सामाजिक बदलाव के आंदोलन के लिए हमेशा प्रेरित करती रही है और करती रहेगी।
                                                                     लाला हरदयाल
उस दौर में ब्रिटिश सरकार की दबाव के चलते भगतसिंह को भूमिगत रहना पड़ा था, लेकिन इसके बावजूद भी उनकी राजनैतिक गतिविधियों में सक्रीयता निरन्तर बढ़ती ही गई। क्रांतिकारी राजनैतिक विचारों के अध्ययन और सांगठिनक कार्यवाही लगातार तेज़ होती गई। इस प्रक्रिया में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में गंभीर अध्ययन किया और साथ-साथ भारतीय परिस्थिति के उपर वे लगातार लिखते रहे। प्रो0 चमनलाल के अनुसार भगतसिंह का क्रांतिकारी चिंतन भारतीय परंपरा में लाला हरदयाल, करतार सिहं सराभा और गदर पार्टी से जुड़ा हुआ था और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माक्र्सवाद और रूस की बोल्शेविक क्रांति से।  उनकी जेल डायरी में इस बात की झलक साफ दिखाई देती है। अफसोस की बात यह है कि संसाधन और तालमेल की कमी के कारण उनके विचारों का ज्यादा प्रचार और प्रसार नहीं हो पाया। उनके बहुत सारे मूल लेख उनकी शहादत के लम्बे समय बाद ही प्रकाशित हो पाए। अगर उस वक्त उनके स्पष्ट विचार लोगों के सामने आ जाते तो शायद राष्ट्रीय आंदोलन में मुख्यधारा के  राजनैतिक दलों के समझौतावादी रूख को बदलने में कारगर साबित होते।


उसी दौर में उन्होंने क्रांतिकारीयों की राजनैतिक संगठन बनाने की प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए भूमिगत होते हुए भी देश के विभिन्न राजनैतिक केन्द्रों में जैसे कोलकत्ता, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली जाकर उस समय के प्रमुख क्रांतिकारीयों के साथ राजनैतिक वार्ता की। जिनमें बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर अज़ाद, गणेश शंकर विद्ययार्थी, अजय घोष आदि प्रमुख व्यक्तिगण थे । इसी प्रक्रिया में समाजवादी विचार के आधार पर क्रांतिकारी पार्टी ‘हिन्दोस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संगठन (हिसप्रस) का गठन हुआ। अंग्रेज़ी में इस का नाम ‘इंडियन सोशलिस्ट रिपब्लिकन आगर्नाईज़ेशन’ था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में वैज्ञानिक समाजवाद के आधार पर  प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम करने के लिए यह पहला संगठन था। यह दोनों गंभीर मुददे भारतीय राजनीति के पटल पर पहली बार आए थे, जिसमें भगतसिंह उस संगठन के राजनैतिक नेता थे और चन्द्रशेखर आज़ाद ने इसको सांगठिनक नेतृत्व दिया था। इस संगठन के क्रांतिकारी विचार से मुख्यधारा की पार्टीयां कांग्रेस, हिन्दुमहासभा व मुस्लिम लीग बहुत आशंकित थे और इन विचारों का प्रचार-प्रसार रोकने के लिए उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ मिलकर पूरा ज़ोर लगाया। मुख्य धारा के राजनैतिक मंचों पर इनके विचारों के बारे में कोई चर्चा भी नहीं होती थी। इस दौर की उल्लेखनीय बात यह थी कि मो0 अली जिन्नाह जो कि उस समय कांग्रेस के नेता थे उन्होंने भी भगतसिंह के बारे में महत्वपूर्ण उल्लेख किया था। जिसमें उन्होंने कहा था कि‘ ‘‘यह नौजवान प्रजातांत्रिक व्यवस्था त्मचनइसपब की बात करते हैं इसलिए यह जनवादी भी है, इन्हें आंतकवादी नहीं कहा जा सकता।’ लेकिन कांग्रेस पार्टी अपनी राजनैतिक दस्तावेज़ों में या अपने अधिवेशनों में कभी भी इन क्रांतिकारीयों के बारे में जिक्र तक नहीं करती थी। यहां तक कि जब भगतसिंह और उनके दो साथी सुखदेव, राजगुरू के फांसी का आदेश हुआ तब भी काग्रेंस पार्टी ने इस आदेश के खिलाफ कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं किया था। इसके विपरीत आम लोगों में भगतसिंह और उनके विचारों के बारे में लगातार उत्सुकता बढ़ती गई और उनके इंकलाबी स्वरूप को हमेशा लोगों ने सराहना की। इतिहास गवाह है कि लाहौर में जब अदालत में उनकी सुनवाई शुरू हुई तो अंग्रेज़ ने जिस जज को पहले नियुक्त किया जिनका नाम जस्टिस आग़ा हैदर था, उन्होंने इस सुनवाई में बैठने से इंकार कर दिया। उसके बदले में अंग्रेज़ों ने सर शादीलाल को प्रलोभन देकर जज बनाया और उन्होंने भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरू को फांसी की सज़ा सुनाई थी। आम लोगों में इस फैसले के खिलाफ एक भंयकर रोष पैदा हुई। इन क्रांतिकारीयों को 24 मार्च 1931 को फांसी के फंदे पर चढ़ाया जाना था, जिसके खिलाफ पूरे पंजाब की अलग अलग जगहो से भारी तादात में लोग लाहौर जेल की तरफ रवाना हो पड़े। प्रसिद्ध राजनैतिकशास्त्र के विद्वान प्रो0 रणधीर सिंह ने कहा था कि उनकी उम्र जब आठ साल की थी, जब उनके पिताजी उन्हे भगतसिंह की शहादत के समय लाहौर जेल की तरफ ले गये थे, जहां पर हजारों लोग इक्क्ठे हो रहे थे। और उस दिन उन्होंने वहां पर एक क्रांति का सपना देखा था। इस से साफ ज़ाहिर है कि पंजाब की आम जनता के अंदर एक अभूतपूर्व राजनैतिक चेतना भगतसिंह की शहादत ने पैदा की थी। अंग्रेज़ी हुकुमत ने भयभीत हो कर उनकी फांसी एक दिन पहले ही करा दी थी। यहां तक कि उन शहीदों की लाशों को परिवारजनों को भी सौंपा नहीं गया, उन्हें डर था कहीं इससे कोई बड़ा आंदोलन खड़ा न हो जाए। ऐसे समय में भी पूरी मुख्यधारा की राष्ट्रीय नेतृत्व खामोश बैठे रहे। दरअसल उनकी शहादत को लेकर आम जनता में जो क्रांतिकारी चेतना पैदा हो रही थी वो भगतसिंह के राजनैतिक रणनीति की एक कामयाबी भी थी। उन्होंने अपनी शहादत को एक राजनैतिक हथियार के रूप से देखा था। एक मायने में उन्होंने अपनी जीवन को और अपनी पार्टी के भविष्य को दाव पर लगाया। शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के राजनैतिक जीवन में यह सबसे महत्वपूर्ण और ज़ोरदार पक्ष रहा है। दुनिया के इतिहास में भी ऐसी नज़ीर बहुत कम मिलती है। उनके पार्टी के सभी साथियों और दोस्तों को मालूम था कि अगर भगतसिंह अंग्रेज़ों के हाथ आ गए तो उन्हें जरूर फांसी होगी। इसको जानते हुए भी उन्होंने ख्ुाद अपनी पार्टी की बैठक में यह सुझाव रखा था कि दिल्ली के सेंट्रल असेम्बली हाल में वो जा कर बम द्वारा धमाका करेगें और दुनिया के सामने अपनी राजनैतिक क्रांतिकारी विचारों को रखेगें। पार्टी के सभी साथी इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे और बकौल उनके घनिष्ठ साथी का0 शिववर्मा ने कहा कि ‘‘हम जानते थे कि अगर भगतसिंह चले गए तो शायद हमारी पार्टी खत्म हो जाएगी चूंकि वे हमारे वैचारिक नेता थे और हमारी पार्टी की ताकत इसी विचार से थी’’। लेकिन भगतसिंह का तर्क यह था कि ‘‘लोग हमें जानते हैं, लेकिन हमारे विचारों के बारे में नहीं जानते हैं और हमारे सामने अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के सभी रास्ते बंद हैं, बस एक ही जगह बची है, जोकि दुश्मन के पाले में जाकर और कचहरी में जाकर हम अपनी बात खुल कर कह सकते हैं, जिससे हमारे विचारों के बारे में दुनिया को पता चल सके। इस काम को करने में पार्टी के अंदर भगतसिंह ही सबसे सक्षम थे’’। आखिर तीन दिन बहस के बाद उन्होंने सबकी सहमति ले ली थी और सर्वसम्मति से यह फैसला हुआ कि भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त सेंट्रल असेम्बली में जा कर बम का धमाका करेगें और पर्चे बांटेगे। जिस पर्चे का उन्वान ‘‘बहरे कानों को सुनाने के लिए एक धमाके की जरूरत है’’ था। अपनी विचारधारा को सर्वोपरि मानना और उसके उपर ऐसी गंभीर निष्ठा भारत के राजनैतिक आंदोलन में बहुत कम देखी गई है जहां पर व्यक्तिगत आकांक्षा और सुरक्षा की भावना खत्म हो जाती है। इसलिए हमारे इतिहास में वे एक सबसे महत्वपूर्ण क्रांतिकारी के रूप में बने थे और बने हुए हैं। अपने क्रांतिकारी विचारों को दुश्मन के पाले में जाकर उन्होंने बेहद ही निपुणता के साथ रखा था, जोकि अपने आप में एक मिसाल है। इस विचार को शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ ने भी पूरी निपुणता के साथ अपने इस शेर में व्यक्त किया ‘‘ऐ शहीद-ए-मुल्क़-ओ मिल्लत मैं तेरे दिल पे निसार, तेरी कु़रबानी का चर्चा गैर की महफि़ल में है’’। स्मरण रहे कि कचहरी में उन्होंने अपने आप को बचाने की कोई कोशिश नहीं की और न ही उन्होंने अपने उपर लगाए हुए आरोप को स्वीकार किया था। बल्कि उन्होंने अंग्रेज़ी हुकुमत की राजनैतिक हैसियत को ही चुनौती दी थी। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि अंग्रेज़ी शासकों के पास हमारे ऊपर मुकदमा चलाने की कोई हैसियत ही नहीं है और इसलिये ये तुरन्त हमारा देश छोड़ कर चले जाए। इस तरह से उन्होंने शासक वर्गो के खिलाफ संघर्ष की एक नई परम्परा भी शुरू की। उसमें अदालत की कार्यवाही को राजनैतिक रूप से इस्तेमाल करने की प्रक्रिया को अपनाया था इसके बाद बहुत से क्रांतिकारीयों ने इस तरीके को अपनाया था। तेलंगाना के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के तमाम नेतागण द्वारा ऐसी रणनीति को अपनाया गया था। मिसाल के तौर पर पार्वतीपुरम कांसपीरेसी केस में अभियुक्त महान वामपंथी नेता टी नागी रेड्डी ने सांमतवाद के खिलाफ जो बयान दिया था वो बाद में एक अमूल्य दस्तावेज़ ‘इंडिया मोर्टगेजड’ के रूप में प्रकाशित हुआ था। यह दस्तावेज़ भूमि अधिकार आंदोलन का बुनियादी दस्तावेज़ है।
जेल के अंदर भगतसिंह का संघर्ष भी अनोखा था। जहां पर उन्होंने राष्ट्रीय आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ जेल में रह रहे कैदीयों की खस्ताहालीं के बारे में भी आंदोलन किया। वहां पर अपने और अन्य कैदीयों के राजनैतिक अधिकारों के मुददे पर लम्बी संघर्ष की जिसमें भूखहड़ताल भी शामिल थी। अपने ढाई साल के कारावास में उन्होंने जितने दिन अनशन किया, गांधी जी सारे जीवन में उतने दिन अनशन में नहीं रहे होगें। इन तथ्यों के शोध के बाद मशहूर इतिहासकार ए0जी नूरानी ने अपने शोध पत्र में उल्लेख किया है, जिसे अंग्रेज़ी पत्रिका फ्रंटलाईन में प्रकाशित किया गया था।
सोहनसिंह जोश

भगतसिंह मूलतः साम्राज्यवाद विरोधी थे, वो सिर्फ किसी एक प्रांत, धर्म और देश का प्रतीक नहीं हैं और दीर्घकालिक संघर्ष के लिए उन्होंने साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष की बात की भी थी। आज विश्व में नवउदारवादी नीति के नाम पर विश्व पूंजीवाद पूरी दुनिया को अपने मकड़जाल में फंसाए रखना चाहता है। शोषण की इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय सीमाओं का महत्व नहीं रह गया है। उन्होंने जेल में रहते हुए व्यापक भारत और अन्य देशों के अर्थिक असमानता के बारे में विस्तृत अध्ययन किया, जो कि उनकी जेल डायरी में अंकित हैं। वैश्विक पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में राष्ट्रीय सीमाओं को पार करके मेहनतकश अवाम और उनके संगठनों के बीच एकता कायम करनी होगी। दक्षिण एशिया में और खासकर के भारत-पाक उपमहाद्वीप में ऐसी एकता कायम करने के लिए भगतसिंह एक शाश्वत प्रतीक हंै। उनकी विचारधाराओं के और तमाम साम्राज्यवादी विरोधी विचारों के आधार पर एक मजबूत आंदोलन खड़ा किया जा सकता है, जो पूंजीवादी शक्तियों को चुनौती दे सकता है और जब तक ऐसा संघर्ष चलता रहेगा भगतसिहं का नाम बार बार आता रहेगा।

इसी समझ के साथ हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में मेहनतकश अवाम के साथ काम करने वाले संगठनों के साथीयों ने भगतसिंह के जन्मदिवस को लाहौर में मनाने की पहल की है। इसी लाहौर में भगतसिंह ने अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया और शहादत भी यहां दी। इस पहल में राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच भी शामिल है और उम्मीद है कि इस मुहिम में और बहुत सारे संगठन जुड़ेगें। राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच वनाधिकारों पर काम करने वाला  मंच है व इस मंच एवं लेबर पार्टी पाकिस्तान द्वारा भगतंिसंह के जन्मदिन पर कार्यक्रम आयोजित करने की पहल की जा रही है। पाकिस्तान के संगठनों ने भगतसिंह के उपर एक स्मारक समिति भी बनाई है। भारत में भी हमें भगतसिंह के बारे में ऐसी दूरगामी समझ बनाने की जरूरत है, क्योंकि आज भी मुख्यधारा की राजनीतिज्ञ उनकी ऐतिहासिक योग्यता को मान्यता नहीं देते। वे उन्हें केवल जनरल सांडर्स के वद्ध की कार्यवाही तक ही उनको दिखाना चाहते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि भारत और पाकिस्तान के प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट होकर शहीदे-आज़म भगतसिंह को इतिहास व्यक्ति के रूप में स्थापित करे और विश्व पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में उन्हें एक अगुआ दस्ते के हिसाब से देखें। अपने आखिरी पत्र जो कि उनके छोटे भाई कुलतार सिंह को सम्बोधित किया था और जो कि शहादत के चंद दिनों पहले ही लिखा गया था, उसमें उन्होंने कहा था कि -

कोई दम का मेहमां हुं ऐ अहले-महफिल
चरागे-सहर हुं बुझा चाहता हुं
                               हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली
                             ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे रहे न रहे..........

भगतसिंह का जिस्म तो चन्द दिनों का मेहमान रहा, लेकिन उनके विचार आज के दौर में और आगे भी जिन्दा रहेंगे। सम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के लिये उन्होने अंग्रेजी हकूमत को चुनौती देते हुये जो वैचारिक संघर्ष की शुरूआत की थी, वो आज और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं, खासकर भारत-पाकिस्तान के लिए। आज दुनिया भर के सरमायदारों और उनके पिछलग्गू सरकारें इस दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ा रही हैं, और यहां के मेहनतकश अवाम इसका मुकाबला कर रहे हैं। ऐसे में भगतसिंह के विचार एक सितारा की तरह हमें राह दिखा रहे हंै। भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों को फिर से जिन्दा करने की पहल पाकिस्तान के कई मुखतलिफ संगठनों ने की है जो कि एक बेहद ही सराहनीय कदम है। भगतसिंह के जन्मदिवस के समारोह में हिन्दुस्तान से भी एक बड़ा प्रतिनिधिमंड़ल भाग लेने लाहौर जा रहा है । हम भगतसिंह और उनकी इन्कलाबी-विचार को इन्कलाबी सलाम करते हैं।
                                   
इन्कलाब जिन्दाबाद!
( ये नारा भगतसिंह ने ही सबसे पहले कचहरी में दिया था जो कि आज पूरे भारतवर्ष में संघर्षशील, मेहतनकश जनता एवं सभी आंदोलन देते हैं)

नोटः भगतसिंह की इस साझी विरासत को एकसाथ मनाने का सपना पाकिस्तान सरकार ने भारतीय प्रतिनिधि मंड़ल को वीज़ा न देकर चूर कर दिया। भारतीय प्रतिनिधि मंड़ल 27 सितम्बर 2012 तक शाम तक इस उम्मीद में रहे कि उन्हें वीज़ा मिल जाएगा लेकिन पाकिस्तान सरकार के इस रवैये ने यह साबित कर दिया है कि शहीदों को श्रद्धांजलि देना भी अब सरकारों के नियंत्रण में है जो कि बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है। सबसे बड़ी बात है कि इस प्रतिनिधिमंड़ल में भगतसिंह के भतीजे किरनजीत भी शामिल थे, जिन्हें उनके पैतृक स्थान पर जाने से रोका गया है। कुछ ही दिनों पहले भारत-पाक समझौते के तहत वीज़ा की शर्तो में राहत देने की बातें ढकोसला ही साबित हुई है। 

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