Monday, September 24, 2012

----रोमा
भूमि अधिग्रहण कानून और जनआंदोलन
आखिरकार प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून को संसद के इस मानसून सत्र में भी टालना ही पड़ा व इस कानून के विवादों में घिरे होने की वजह से सरकार द्वारा मंत्री समूह को सौंप दिया गया है। हालांकि यह खबर सुर्खियों में नहीं हैं, चूंकि इस समय  केन्द्र सरकार  अपने दामन पर लगी कालिख को पोंछने में लगी हुई है, और संसद में किसी और मुददे पर बात करने की स्थिति में ही नहीं है। इसी विवादास्पद कानून के खिलाफ गत 21-23 अगस्त 2012 को जन्तर-मन्तर पर ‘‘संघर्ष’’ के बैनर तले हजारों लोगों ने धरना दिया। मौजूदा यूपीए सरकार की हालत इतनी नाजुक है कि वह किसी पत्ते की हल्की सरसराहट से भी डोलने लगती है इसलिए यह सरकार जानती है कि इस समय भूमि अधिग्रहण कानून को पारित करना ‘आ बैल मुझे मार’ वाली स्थिति होगी। ‘‘संघर्ष’’ के बैनर तले प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ पिछले पांच साल से देश भर के कई संगठनों द्वारा जंतर मंतर पर संसद के हर सत्र में यह प्रदर्शन किया जा रहा है। हर वर्ष इस प्रदर्शन में देश के सभी प्रमुख आंदोलन जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन, वनाधिकार आंदोलन, पास्को प्रतिरोध आंदोलन, बड़े बांधों के खिलाफ असम, अरूांचल व हिमाचल के आंदोलन, शहरी ग़रीबों के भूमि के सवालों को लेकर चल रहे आंदोलन, सेज़, मछुआरों के संगठन व जैतापुर, कोडनाकुलम परमाणु उर्जा संयत्रों के कारण हुए व हो रहे तमाम विस्थापनों के खिलाफ आंदोलन एक मंच पर इकट्ठा होकर अपना विरोध प्रदर्शन करते आ रहे हैं। धरने के समापन पर वहां मौजूद हज़ारों लोगों ने संसद मार्ग पर ज़ोरदार रैली कर भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ अपना विरोध प्रदर्शित किया। ‘‘संघर्ष’’ जो कि इतने वर्षों से अपने प्रयासों के बलबूते ही चल रहा है, इसमें इस बार लगभग हर पार्टी के सांसद को धरने पर आने को मज़बूर होना पड़ा, जिसमें बड़ी बात यह रही कि जहां-जहां से संघर्षरत जनता आई थी, उन्होंने अपने सांसदों को खुद फोन कर के धरने पर आने को मजबूर किया। इसमें कई महत्वपूर्ण सांसद आए जिनमें एसयूसीआई के सुन्दरबन प0 बंगाल के सांसद तरूण मंड़ल, सीपीएम के सांसद पी राजीव, सोनभद्र उ0प्र0 के समाजवादी पार्टी के सांसद पकौड़ी लाल कोल, राज्य सभा सांसद बसपा से एसपीएस बाघेल, नवापाढ़ा उड़ीसा के ए स्वामी, कांग्रेस के बम्बई मालाड के सांसद संजय निरूपम, सीपीआई की वरिष्ठ नेता अमरजीत कौर व अतुल अंजान, पूर्व सांसद दिलिप सिंह भूरिया, वरिष्ठ समाजसेवी बी.डी शर्मा व स्वामी अग्निवेश आदि शामिल हुए।

इस कानून को लेकर सरकार अतिउत्साहित है, उसका दावा है कि अंग्रेज़ों द्वारा 1894 में बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करके उसी कानून को बेहतर बनाने व अधिग्रहण के एवज़ में किसानों को उनकी जमीन का बेहतर दाम दिये जाने का ढोल पीटा जा रहा है। दरअसल सरकार को पूंजीपतियों के इशारे पर नवउदार वादी नीतियों के तहत कई उद्योग लगाने के लिए निजि कम्पनियों केे लिए बड़े पैमाने पर कृषि भूमि को अधिग्रहण करने की जरूरत है। जिसके भयंकर दुश्ःपरिणाम नंदीग्राम और सिंगुर में देखने को मिले, जहां सरकारों को समझ में आया कि निजि कम्पनियों के लिए कृषि भूमि को अधिग्रहण करना इतना आसान नहीं है। इसलिए इस प्रक्रिया को तथाकथित पिपुल्स फ्रैंडली बनाने के लिए इस नये संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून को पारित करने की बात सरकार द्वारा जोर-ओ-शोर से की जाने लगी। या यूं कहे भूमि की लूट को वैध करार देने के लिए इस कानून को लाने की बात हो रही है चूंकि नंदीग्राम और सिंगूर से सरकारों को अच्छा सबक सिखाया है।
सन् 2007 में जब पं0 बंगाल सरकार ने नंदी ग्राम में किसानों का नरसंहार किया था, उसी समय जंतर मंतर पर ‘‘संघर्ष’’ का जन्म हुआ था। जिसमें देश के तमाम हिस्सों से भूमि और जंगल पर अपने हकों के लिए लड़ रहे  लोगों ने बेमियादी धरना शुरू किया। यह इन जनसंघर्षो की जीत का ही नतीजा है, कि सरकार द्वारा परोसा जा रहा इस तरह का गैरसंवैधानिक व जनविरोधी कानून अभी तक संसद में पारित नहीं हो सका है। ‘‘संघर्ष’’ की प्रक्रिया देश में चल रहे जल, जंगल, जमीन व कम्पनियों के द्वारा गैरकानूनी ढंग से सरकार, प्रशासन, न्यायिक व्यवस्था व कारपोरेट घरानों की मिली भगत से भूमि अधिग्रहण के खिलाफ काम कर रहे आंदोलनों ने शुरू की। यह अपने आप में एक संगठित प्रयास है, जोकि सही मायने में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बुनियादी बहस को छेड़ने की मांग कर रहा है व सरकार को इन बेशकीमती प्राकृतिक संसाधनों को कोडि़यों के दाम बेचने की इजाज़त नहीं दे रहा है।
‘‘संघर्ष’’ से जुड़े तमाम सामाजिक आंदोलन व जनसंगठन इस आवाज़ को बुलंद कर रहे हैं कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है कि सरकार इतनी तत्परता से भूमि अधिग्रहण कानून को पास कराने में दिलचस्पी दिखा रही है। जबकि अन्य जनपक्षिय कानूनों के क्रियान्वयन की हालात देश में काफी खराब है, मिसाल के तौर ”जमींदारी विनाश व भूमि सुधार कानून“,”भूमि हदबंदी कानून“,”वनाधिकार कानून 2006“ आदि। साथ ही देश में अभी तक विभिन्न परियोजनाओं और तथाकथित विकास की सूली पर अनुमानतः 10 करोड़ लोगों को चढ़ाया जा चुका है। जिनकी जमीनों को छीन कर किस का विकास किया गया, इस सवाल का कोई जवाब अभी तक सरकार के पास नहीं है, लेकिन मुआवज़े की मोटी रक़म का लालच देकर और भूमि छीनने की कार्यवाही को अंजाम देने पर सरकार आमादा है। संघर्ष का मानना है यह बिल बिल्कुल  बेकार है क्योंकि इस में समुदाय के हाथ में कुछ भी नहीं है। आंदोलनकारीयों का कहना है कि जब तक अधिकार की बात नहीं होती तब तक  भूमि अधिग्रहण की बात नहीं होनी चाहिए। इस समय देश में ऐसे कानून की जरूरत है जो हमारे संविधान के अनुरूप भूमि पर सार्वभौम अधिकारों को स्थापित करें। सरकार केवल भूमि अधिग्रहण की बात करके असली मुददें को यानि भूमि पर उसका अधिकार जो उसपर आजीविका के लिए निर्भर को पर्दे के पीछे धकेल रही है। जबकि ऐसे कानून की कतई जरूरत नहीं है जो लोगों के जल,जंगल व जमींन उनसे छीन लें। ज्ञातव्य है कि अंग्रेज़ों ने 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून तो हमारे जंगल और भूमियों को लूटने के सौ साल बाद बनाया। प्लासी के युद्ध से लेकर, 1765 से आदिवासीयों की भूमियों को 1894 तक बिना किसी कानून के तहत अंग्रेज़ों ने लूटा।  1857 की क्रांति और जंगलों में आदिवासीयों के सामने ब्रिटिश हुकुमत द्वारा अपनी जड़ों को हिलता देख इस तरह का कानून बनाने पर मजबूर हुए ताकि उनकी लूट को वैधता मिल सके। इसी तरह 1865 में ब्रिटिश हुकुमत द्वारा वनविभाग को बना कर वनों को लूटा गया लेकिन इस लूट को वैधता की मोहर 1927 को भारतीय वनकानून बना कर लगाई गई। तब जो पीढ़ीयों से वनों में रहने वाले बाहरी हो गए और बाहरी जो थे उन्होंने लूट के कानून बना कर अपनी वैधता पा ली। देश की राष्ट्रीय संपदा की लूट अभी तक उपनिवेशिक कानूनों के तहत इस देश के नागरिकों को संविधान में प्राप्त उनके अधिकारों को ताक पर रख कर की जा रही है, इन सवालों का जवाब न देकर सरकार नए जनविरोधी कानून में उलझाने की बात कर रही है।  इस प्रस्तावित कानून में नए शब्दों को जोड़ कर जैसे सार्वजनिक प्रयोजनों की परिभाषा व मुवाअज़े की राशि आदि बढ़ाने के प्रलोभन पर इस कानून को अंग्रेज़ी कानून की उपेक्षा काफी अच्छा कानून बताया जा रहा है। लेकिन संपदा तो लूटी जा रही है उसे वापिस कैसे लेना है इस पर सोचने की जरूरत है जिसपर आंदोलनकारीयों का विशेष ज़ोर है।

“संघर्ष” का मानना है कि चार बुनियादी सवाल है जिसपर सरकार और मेहनतकश जनता की सीधे बात होनी चाहिए। पहला भूमि अधिग्रहण पर तभी बात हो सकती है जब जमींन होगी अगर जमींन नहीं तो सौदा कैसा? गौरतलब बात यह है कि इस भूमिअधिग्रहण कानून में भूमिहीनों का सवाल ही नहीं है बल्कि सार्वजनिक जमींनों को ही बेचा जा रहा है जो कि सांमतों के कब्ज़े में हैं जिन्होंने गैरकानूनी तरीके से आज़ादी के बाद से इन जमींनों पर हड़प कर रखा हुआ है। भूमिहीनों को जमींने  आज़ादी के 66 साल बाद भी क्यों नहीं मिली, इसका जवाब सरकार को देना होगा? दूसरा सरकार ने जो जमींने अभी तक ली है उसका क्या किया है? इस पर एक श्वेत पत्र ज़ारी होना चाहिए। चूंकि जो जमींने सार्वजनिक उद्योगों व राष्ट्रहित के लिए अधिग्रहित की गई उसे भी निजि हाथों में बेच दिया गया। तीसरा, राष्ट्रहित के नाम पर देश में बनाए गए विभिन्न बांधों से जो करोड़ों लोग विस्थापित हुए उनकी स्थिति क्या है व सरकार ने उनके विकास के लिए क्या किया? चैथा क्या यह प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून हमारे संविधान के अनुरूप जल, जंगल व जमींन के पर्यावरणीय संदर्भ के बारे में ध्यान रखता है? अगर नहीं रखता है तो देश को ऐसा कोई कानून स्वीकार्य नहीं होगा जिसमें पर्यावरणीय न्याय का सवाल अंतनिर्हित नहीं है।

सवाल आज काफी गंभीर हैं जिसे सुलझाए बिना किसी भी तरीके से भूमि के सावभौमिक अधिकार को छेड़ा नहीं जा सकता। सरकारों को यह जवाब देना होगा कि आखिर संविधान बने 62 साल हो गए और आज़ादी के आंदोलन को 150 साल हो गए लेकिन आज तक लोगों को जमींने क्यों नहीं मिली। भूमि अधिकार को लेकर देश में काफी बड़े आंदोलन हुए जैसे विनोबा भावे का आंदोलन, तेलेंगाना, वाम दलों के आंदोलन लेकिन फिर भी यह प्राकृतिक संसाधन उनके हाथ में क्यों नहीं है जो इनपर जीविका के लिए निर्भर हैं? इस पर बहस होना निहायत जरूरी है केवल विकास के नाम पर इस बहस को पीछे नहीं हटाया जा सकता।

सबसे अचम्भित कर देने वाली बात ये है कि प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई संसदीय समिति की सिफारिशों को भी मौजूदा सरकार ना मानकर सिरे से नकार रही है। यह तथ्य संसदीय समिति के सदस्य मणि शंकर अय्यर ने 13 अगस्त 2012 को कांस्टीट्यूशन कल्ब में ‘‘संघर्ष’’ द्वारा आयोजित की गई सांसदों के साथ चर्चा में अपने वक्तव्य में रखा और यही बात संसदीय समिति के ही सदस्य पी. राजीव सांसद सीपीएम ने भी अपने वक्तव्य में 23 अगस्त को जंतर मंतर पर धरने में आकर कही। मणिशंकर ने तो यहां तक कहा कि ऐसा कोई भी देश नहीं है, जहंा पर कृषि भूमि का अधिग्रहण निजि प्रयोजनों के लिया किया जा रहा हो। यह केवल भारत देश में ही हो रहा है, जिसका संसदीय समिति ने कड़ा विरोध किया है। वहीं पी राजीव ने भी कहा कि तय यह हुआ था कि इस कानून के तहत कोई बेदखली नहीं की जाएगी और निजि कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण भी नहीं किया जाएगा, लेकिन उसके बावजूद सरकार उसे बदलने को तैयार नहीं है। पी.राजीव ने कहा कि वैसे भी सरकार 95 प्रतिशत भूमि अधिग्रहण तो अन्य 16 कानूनों के ज़रिये ही करती है। संसदीय समिति का यह भी सुझाव है कि इन सभी कानूनों को भूमि अधिग्रहण के अंदर ही शामिल करना चाहिए, लेकिन इस पर भी सरकार राजी नहीं हो रही है। जबकि रक्षा मंत्रालय चाहता है कि उन्हें एक ही कानून में शामिल किया जाए, लेकिन सरकार ने उसे भी अस्वीकार कर दिया। इस कानून के सहारे पीपीपी पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप के जरिये निजि हाथो में देश के बेशकीमती प्राकृतिक संसाधनों को देने की बात का भी संसदीय समिति ने कड़ा विरोध किया है।

‘‘संघर्ष’’ के बैनर तले इकट्ठा हुए जनांदोलनों की स्पष्ट समझ है कि वे केवल भूमि अधिग्रहण कानून के विरोध में ही जंतर मंतर पर हर वर्ष नहीं बैठते बल्कि वे भूमि से जुड़े वृहद मामलों खासतौर पर भूमि सुधार और भूमि अधिकार पर संसद और सरकार के साथ संघर्ष की लम्बी तैयारी के साथ हर वर्ष बैठ रहे हैं। चूंकि भूमि से जुड़े ये तमाम आंदोलन यह सवाल मज़बूती के साथ उठा रहे हैं कि सरकार भूमि सुधारों के तहत देश में कितना भूमि वितरण जमीन जोतने वाले और भूमि पर निर्भरशील मेहतनकश जनता को कर पाई है, पहले सरकार इसका ब्यौरा दे। देश भर में जमींदारी विनाश कानून और भूमि सुधार कानूनों के तहत सांमतशाही व भूमि पर उच्च व दबंग जातियों के वर्चस्व को कितना कम कर पाई है इस का जवाब दे? संविधान की अनुच्छेद 21 में दिए गए जीने के अधिकार, अनु0 39 में भूमि एवं प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का नियंत्रण एवं सरकार के एकाधिकार को समाप्त करने के अधिकार, अनु0 13 में दिए गए आज़ादी से पूर्व अंग्रेज़ों के बनाये कानूनों को रद्द कर संविधान के अनुरूप नये कानून बनाने के तमाम अधिकारों व प्रावधानों के खिलाफ नए भूमि अधिग्रहण कानून को लाया जाना आखिर कहा तक तर्कसंगत है, सरकार इन सवालों का भी जवाब दे। वहीं एक तरफ भूमि हदबन्दी कानून आदि को तो कमज़ोर कर दिया गया व खेतीहर मज़दूरों के अधिकारों की सुरक्षा का कानून पिछले 40 वर्षो से संसद में लम्बित है, इन कानूनों से खिलवाड़ कर अपने देश की उत्पादक शक्तियों के हक़ों को साम्राज्यवादी व पूंजीवादी ताकतों के आगे गिरवी रखने का अधिकार इस देश की संसद किसी भी सरकार को नहीं देती है, लेकिन फिर भी ऐसा क्यों हो रहा है इस का जवाब भी जनता सरकार से चाहती है।
 जब संविधान के अनुरूप इन संवैधानिक अधिकारों को अभी तक देश के मेहनतकश, खेती का काम करने वाले किसानों और मज़दूरों को दिया ही नहीं गया तो कृषि लायक भूमि को निजि हाथों में देने के लिए अधिग्रहित करने की बात ही कहां से आती है? गौर तलब है कि पिछले दस सालों में लगभग 18 लाख है0 कृषि लायक भूमि को गैर कृषि कार्यो में तब्दील किया गया है। इन सब सवालों पर प्राकृतिक संसाधनों पर आजीविका के लिए निर्भरशील समुदायों के लोग जो कि नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ सबसे बड़ा संघर्ष लड़ रहे हैं, केन्द्रीय व राज्य सरकारों के लिए आगे आने वाले दिनों में एक बड़ी मुसीबत बन कर खड़े हो सकते है। चूंकि बहाना तो नए भूमि अधिग्रहण कानून का है, लेकिन जब तक यह नया कानून नही बन जाता, तब तक 1894 के कानून के तहत व तमाम अन्य कानूनों के तहत कृषि एवं जंगलों की भूमि का अधिग्रहण होना तो ज़ारी ही रहेगा जोकि आज भी ज़ारी है। और तो और बड़े औद्योगिक घराने जैसे जे0पी, एस्सार, जिंदल, अडानी, अम्बानी आदि द्वारा तो स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारों द्वारा मिलकर भूमि रिर्काड की हेरा फेरी कर, भूमि की किस्मों को बदलने जैसा अपराधिक कार्य किया जा रहा है इसका सबूत वनविभाग की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में जे0पी के खिलाफ दायर ऐफिडेविट में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। उसी तरह उड़ीसा में पास्को और नियमागिरी परियोजनाओं में भी इसी तरह से किया गया। ये झूठ भी सबके सामने आ चुका है लेकिन अभी तक इन बड़े औद्योगिक घरानों का बाल भी बांका नहीं हो पाया है।


 ‘‘संघर्ष’’ का मांग है कि जैसे वनों को बचाने के लिए वनाधिकार कानून 2006 को पारित किया गया उसी प्रकार कृषि को बचाने के लिए व उसके विकास के लिए भी वनाधिकार कानून की तर्ज पर कृषि भूमि और श्रम अधिकारों को बचाने का कानून बनाया जाना चाहिए, व 1894 के अंग्रेज़ों के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून को रदद् कर दिया जाना चाहिए। कई राजनैतिक दलों ने भी इस मांग का समर्थन किया है व अपने घोषणा पत्र में इसे शामिल किया है सीपीआई के प्रबोध पांडा ने 13 अगस्त को अपने वक्तवय में पार्टी की नीति को स्पष्ट किया व नये प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध किया।
समय की मांग है कि इन नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ आज आम नागरिक समाज, प्रगतिशील ताकतों, वाम दलों, मज़दूर संगठनों आदि को लामबंद हो कर प्राकृतिक संपदा को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए एकजुट होकर इस मुहिम को तेज़ करना होगा। पूरी दुनिया में भूमि अधिकार के संघर्ष का इतिहास अगर हम उठा कर देखेंगें तो पाएगें कि भूमि पर अधिकार छीन कर ही हासिल किए गए सरकारों ने यह अधिकार लोगों को नहीं सौपें हैं। भूमि राजसत्ता का केन्द्र है जिसे सरकारें अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए ही इस्तेमाल करती है ताकि जनता और सरकार में कभी भी बराबरी का सम्बन्ध न हो सके। भूमि पर जनता का अधिकार व भूमि को जीविका के लिए उपयोग करने के अधिकार ही किसी समाज को उन्नति की और ले जाते हैं। अगर कृषि, प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार बनाम औद्योगिक विकास में संतुलन नहीं बनाया जाएगा तो यह पूंजीवादी व्यवस्था चरमरा जाएगी। जीडीपी व अर्थिक बढ़ोतरी का पैमाना केवल लूट के आधार पर औद्योगिक विकास नहीं हो सकते बल्कि मेहनतकश द्वारा अर्जित संपदा ही जीडीपी व आर्थिक उन्नति का मुख्य पैमाना है। इसे हमारे देश की सरकारों व अर्थशास्त्रीयों को समझना होगा। आज अधिग्रहण की बात जरूर होनी चाहिए पर अधिग्रहण बड़े भूपतियों, औद्योगिक घरानों, काओपरेटिव सोसाइटयों, सांमतों, वनविभाग, रेलवे विभाग, सार्वजनिक इर्कायों के पास जो अवैध भूमि पर कब्ज़ा है उसे अधिग्रहित कर भूमिहीनों में व महिला श्रमिकों के समूह में सामुदायिक खेती व जंगल लगाने के लिए वितरीत की जानी चाहिए। आज देश में कई स्थानों पर समुदायों द्वारा ऐसे सामुदायिक खेती व जंगल लगाने के सैंकड़ों प्रयास किए जा रहे हैं और यही वे समुदाय है जो कि हर वर्ष “संघर्ष” के बैनर तले जंतर मंतर पर एकत्रित होते हैं। इसलिए उन्हें विश्वास है कि भूमि पर सीधी टक्कर सरकार और लेागों के बीच में है जिसे संघर्ष से ही हासिल किया जाएगा। आगामी 2014 के लोकसभा चुनाव का मुददा भी भूमि अधिग्रहण होगा जिसके ऊपर सरकार को करारी मात मिलने वाली है। 

आज सबसे महत्वपूर्ण सवाल पर्यावरणीय न्याय का है अगर पर्यावरणीय न्याय को सामाजिक समानता का हिस्सा नहीं बनाया जाएगा तो इससे सबसे ज्यादा नुकसान मानवजाति व समाज को होगा। प्रकृति तो वृहद है उसे कोई र्फक नहीं पड़ता वह तो करवट बदलेगी और अपने आप को सैंकड़ों, हज़ारों सालों में समेट लेगी। लेकिन मानव जीवन की जो क्षति होगी वह अपूर्णीय होगी जिसके लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर मेहनतकश जनता के केन्द्र में एक वृहद तालमेल बनाना होगा तभी इन अमूल्य प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जा सकता है व मानवजीवन के आस्तित्व की रक्षा हो सकती है।

नोट: इस लेख का एक छोटा अंश 7 सितम्बर 2012 को अमर उजाला के सम्पादकीय पन्ने पर प्रकाशित हो चुका है।



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