Friday, July 29, 2011

Banjaar Kullu, mein samudayik sampada par concept note

जब कोई विचार आम जनमानस में समाहित हो जाता है, तब वह एक वास्तविक सामाजिक शक्ति में तब्दील हो जाता है
- कार्ल माकर््स

सामुदायिक संपदा, अधिकार एवं आजीविका

पारंपरिक समुदायों, आजीविका के अधिकारों
एवं
आंदोलनों के समन्वय पर
राष्ट्रीय परिसंवाद
बंजार-कुल्लू 24-26 जून, 2011

विचार पत्र
पिछली कई सदियों से सामुदायिक संपदा पर अपना अधिकार जताने वाले समुदायों और उनका जन्मसिद्ध अधिकार हड़पने वाली सरकारों के बीच हमेशा एक संघर्ष रहा है। औपनिवेशिक काल के पहले से और उसके बाद के भी इतिहास को जब हम देखते हैं तो औपनिवेशिक भारत में हुए अधिकांश संघर्ष जिनमें खूनी संघर्ष भी शामिल रहे हैं, सिर्फ सत्ता पर अधिकार के लिये न होकर सामुदायिक संपदा पर अपने पारंपरिक मालिकाना अधिकारों और उसका बाजारीकरण करने की कोशिश करने वाले शासन तंत्र के खिलाफ भी रहे हैं।

यह बात हम औपनिवेशिक भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा और तिलका माझी जैसे प्रख्यात आदिवासी नेतृत्व में किये गये संघर्षों से अच्छी तरह से समझ सकते हैं। इसी दौर में देश के सम्पन्न वर्गों के नेतृत्व में हुए राष्ट्रीय आंदोलनों को एक दिशा में खींचने के और दूसरी ओर आदिवासियों और प्राकृतिक संपदा पर निर्भरशील हमेशा हाशिये पर रखे गये अन्य शोषित वर्गों के नेतृत्व में होने वाले आंदोलनों के दूसरी ओर खींचने के इतिहास के भी हम गवाह रहे हैं। उस दौर में लागू किया गया विनाशकारी ‘भूमि अधिग्रहण कानून-1894‘ जोकि शासक वर्ग के एकाधिकार के सिद्धांत पर आधारित है, यह कानून भी मुख्य रूप से उस वक्त में समुदायों के नेतृत्व में चल रहे संघर्षों के दमन को सुनिश्चित करने के लिये की गयी एक कठोर कार्रवाई ही थी। इस दमनकारी प्रक्रिया की राजनैतिक अर्थव्यवस्था यह थी कि वन संसाधनों से और उस उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े हुए श्रम से पूंजी के प्राथमिक जुटाव को समेकित किया जाये। तआज्जुब की बात यह रही कि स्वतंत्र भारत के शासक वर्ग ने भी इस जनविरोधी कानून का लाभ उठाया और सरकार ने पूंजीवाद पर आधारित आद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिये इसकी मदद से ज़मीन और संसाधनो पर औपनिवेशिक काल से किये जा रहे हमलों को जारी रखा। यह सब हमले आज़ाद भारत की सरकारों द्वारा राष्ट्र निर्माण के नाम पर किये गये।

दूसरी ओर हम देखते हैं कि पूंजीवादी समर्थक आर्थिक उदारीकरण को बढ़ावा देने के लिये शासन और पूंजी बाज़ार सहित इसके नये ऐजेंटों ने इस मौजूदा माध्यम को इस्तेमाल करके सामुदायिक संपदा और नागरिकों के निजी स्वामित्व वाले संसाधनों पर भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिये नये-नये तरीकों को इजाद करके अपनाया। आज हम जिस युग में सांस ले रहे हैं, यह पूंजी की वृद्धि पर आधारित विकास के माडल की परिकल्पना का 1990 के बाद का नया युग है, जो कि आईएफआईजी, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानांे और बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निर्देशित होता है और आखि़रकार जो कि पूरी राजसत्ता पर काबिज हो गया है।

पिछले दो दशक में जैसे-जैसे पूंजीवादी भूमंडलीकरण के हमले तेज़ हुए हैं, वैसे-वैसे सामुदायिक सम्पदा पर वैश्विक पूंजी का दावा भी पहले से कई गुणा बढ़ गया है। दूसरी तरफ इसके जवाब में समुदायों के अपनी सामुदायिक संपदा पर अधिकार कायम करने के संघर्ष को भी धीरे-धीरे आधार मिलने लगा और इसी आधार पर वैश्वििक न्याय के आंदोलन के संघर्ष में सामुदायिक शक्ति एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरकर सामने आ रही है।

जैसे-जैसे दुनियाभर में नवउदारवादी एजेंडा मज़बूत हुआ है, एक बात साफतौर पर सामने आ रही है कि इन संरचनात्मक संयोजन के नाम पर किये गये कार्यक्रमों का उद्ेश्य न सिर्फ राजकीय सम्पत्ति को कमजोर करना है, बल्कि समुदायों द्वारा संघर्ष करके हासिल की गयी सामूहिक संपदा के ऊपर कायम किये गये अधिकारों के आधार को नष्ट करने और भविष्य में कहीं भी सामूहिक संपदा पर समुदायों को अपना अधिकार कायम करने से रोकना भी है। यह बात अगर हम भूमि नीति के सुधारों की मांग, कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद और सरकार की मूल्य निर्धारण नीतियों का अवलोकन करें तो साफ दिखाई देने लगेगी। इसके पीछे इनकी मूल मंशा यह है कि भूमि का निजीकरण किया जाये और एक नया भूमि बाज़ार तैयार किया जाये लेकिन ज़मीनी तौर पर समुदायों के लगातार बढ़ते संघर्षों के कारण 80 के दशक में और 90 के दशक की शुरुआत में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन और कई राष्ट्रों की सरकारें ज़मीन पर समुदायों के सामूहिक संपदा के अधिकार को मान्यता देने को बाध्य हुईं। देर से ही सही 2006 के अन्त में ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत निवासी(वनाधिकारों की मान्यता) कानून‘‘ को पास करना भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। आज देशभर में समुदाय मज़बूत तबकों द्वारा भूमि हड़पने और जन संसाधनों पर निजी नियंत्रण के खिलाफ संघर्षरत हैं।

आज अगर हम व्यापार एवं उद्योग संबन्धी आंकड़ों को देखें तो वे साफ दर्शाते हैं कि पूंजीवादी विकास का यह माडल न सिर्फ पारिस्थितिकी एवं सामाजिक रूप से बल्कि आर्थिक रूप से भी टिकाऊ नहीं है। विकास के तमाम तथाकथित ईंजन खासतौर पर आयात और विदेशी प्रोद्योगिकी पर निर्भर हैं। जिनका परिणाम ये होता है कि उनका विस्तार केवल कंपनी हितों को लाभ पहुंचाने के लिये ही होता है, वे आम आदमी को किसी भी तरह का रोजगार पैदा करने या मजदूरी तक के साधनों तक पहुंच बढ़ाने में भी किसी भी तरह से सहायक सिद्ध नहीं होते। एसईज़ेड कानून पूंजीवाद को मदद करने के लिये ही पारित किया गया, लेकिन ऐसे क्षेत्रों में निर्माण के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के हितों की रक्षा के लिये कोई प्रावधान नहीं रखा गया।

आज सरकार द्वारा विकास के नाम पर जल-जंगल-ज़मीन और खनिज जैसे सामुदायिक संसाधनों को अधिग्रहित किया जा रहा है और धन अर्जित करने के लिये पूंजीवादियों के हाथों में सौंपा जा रहा है। ग्रामीण पारंपरिक व्यवस्था को एक सोची समझी चाल के तहत कमज़ोर किया जा रहा है। लघु उद्योग, कुटीर उद्योग, हैन्डलूम और हस्तकला शिल्प उद्योग आज अपना आधार खो रहे हैं। एक तरफ छोटे और सीमांत किसानों को निराशा हो रही है तो दूसरी ओर बड़ी-बड़ी कम्पनियां ठेका आधारित खेती को बढ़ाने के लिये संसाधनों तक अपनी पहुंच को बढ़ाना चाह रही हैं। इस पूरे खेल में यह ध्यान देना ज़रूरी है कि राष्ट्रों के अंदर एवं उनके बीच, असमानता के आर्थिक एवं राजनैतिक मुद्दे वितरण एवं उपभोग पर असर डालते हैं और ये पर्यावरणीय संतुलन के बिगड़ने के मुख्य कारक हैं।

संकट इस बात पर भी है कि पिछले 60 सालों में देश के बहुसंख्यक वंचित तबकों के हवा, पानी, ज़मीन, खनिज और जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार और उपलब्धता को चंद मुट्ठीभर लोगों द्वारा लगातार हड़पा गया है। इस दौर में अस्थाई आर्थिक विकास और जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल और खनन उद्योगों पर निर्भर अर्थव्यवस्था पर आधारित अःसमान विकास के कारण कार्बन के उत्सर्जन में भी तेज़ी आई है, जो कि धरती की सोखने की क्षमता से कहीं ज़्यादह है। आज दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तीव्रता से तत्काल कटौती की सख्त ज़रूरत है। लेकिन यह इच्छा न तो भारत सरकार की स्थिति और नीति हस्तक्षेपों में दिखती है और ना ही दुनिया की दूसरी सरकारों में। जलवायु परिवर्तन यानि मौसमी बदलाव आज गरीब तबकों के लिये एक गंभीर संकट बन गया है। आज भारत में भी कई इलाकों में इस मौसमी बदलाव के व्यापक और भयानक असर देखे जा रहे हैं। इस असर से प्रभावित क्षेत्रों में शहरी कामगार गरीबों, हिमालय सहित अन्य पहाड़ी लोगों, मछुआरों, अन्य तटीय व द्वीपों पर बसे समुदायों, छोटे सीमांत किसानों, खेतीहर मज़दूरों, दलितों, महिलाओं, आदिवासी व अन्य वनजनों और विभिन्न क्षेत्रों मंें हाशिये पर रहने वाले समुदायों के जीवन और उनकी आजीविका पर गहरा विपरीत प्रभाव डाला है।

हालांकि नवउदारवाद को दुनियाभर में प्राकृतिक सामुदायिक संपदा पर अपने अधिकारों की रक्षा कर रहे समुदायों की ओर से कड़ा प्रतिरोध भी झेलना पड़ रहा है। पूंजीवादी शक्तियों की खनिज और जीवाश्म ईंधन के प्रति बढ़ती भूख के विरोध में ज़मीन के उस हिस्से पर भी संघर्ष बढ़ रहा है जो कि वनों से आच्छादित है। चूंकि वनक्षेत्रों में ऐतिहासिक तौर पर मूलनिवासी, आदिवासी और पारंपरिक रूप से रहने वाले वन निवासी ही रहते हैं जो कि मुख्य रूप से जंगल से प्राप्त होने वाली वनोपज पर ही निर्भरशील हैं, जिनका संघर्ष आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। वे एक ओर वनाधिकार कानून को और इसके क्रियान्वयन की सरकारी प्रक्रिया को मुखर चुनौती दे रहे हैं, तो दूसरी ओर वन कटान और क्षरण के ज़रिये उत्सर्जन कम करने के नाम पर खेली जा रहीं आरईडीडी जैसी अनगिनत चालों को भी चुनौती दे रहे हैं।

सरकार द्वारा लागू की गयी ढांचागत परियोजनाओं और उद्योगों के लिये खेती की ज़मीनों का अधिग्रहण किये जाने के विरोध में भी राज्य प्राधिकरणों और स्थानीय समुदायों के बीच संघर्ष बढ़ा है। लोगों का बड़ी संख्या में अनियंत्रित विस्थापन हो रहा है और ज़मीनी स्तर पर उपयुक्त पुनस्र्थापन और पुनर्वास नहीं किया जा रहा है। सरकार और बड़ी-बड़ी कम्पनियां ज़मीन सम्बन्धी सभी कानूनों का उलंघन करने के लिये पूरी तरह से आज़ाद हैं।

सरकार और कंपनियों द्वारा की जा रही संसाधनों की लूट के व्यापक असर के कारण समुदायों द्वारा किये जा रहे संघर्ष भी विकेन्द्रित हैं और कई जगहों पर आपस में जुड़े भी नहीं हैं। ये आज मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में भी नहीं चल रहे हैं और न ही उनके भरोसे पर। समुदायों की लगातार बढ़ती जनचेतना ही इन आंदोलनों को आगे बढ़ा रही है। वे अब मान रहे हैं, कह रहे हैं और इसको अमल में भी ला रहे हैं कि सरकार के साथ समुदायों की अब सीधी टक्कर है। वे इसके लिये कई जगहों पर अपनी जान की परवाह भी नहीं कर रहे हैं। समुदायों की इस बढ़ती जनचेतना के आगे अब नवउदारवादियों का रास्ता भी उतना आसान नहीं रहा है। नंदीग्राम, सिंगूर, रायगढ़, चिंगारा और सोनभद्र के संघर्ष बढ़ती हुई जनचेतना की ऐसी नज़ीरें हैं, जहां पर लोग अपनी जान को हथेली पर रख कर आंदोलन को अपनी ताक़त से आगे बढ़ा रहे हैं और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि नवउदारवादी आर्थिक प्रक्रिया आगे न बढ़ पाये। इन आंदोलनों में नारी संचेतना का उद्भव विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जोकि आंदोलनों में महिला नेतृत्व की भूमिका की ज़रूरत को स्थापित कर रहा है। निश्चित रूप से इस तरह के संघर्ष जनआंदोलनो को उत्साहित कर रहे हैं और एक नयी दिशा भी दे रहे हैं।

पिछले कुछ सालों से हिमाचल प्रदेश की वादियों में और पर्वतीय इलाकों में ऐसे अन्याय पूर्ण और जनविरोधी प्रोजेक्टों के खिलाफ जन आक्रोष बढ़ रहा है। ऐसे आंदोलनों को व्यापक मान्यता, समर्थन और प्रोत्साहन देना ज़रूरी है और साथ-साथ रेणुका बाॅध विस्थापन विरोधी संघर्ष से लेकर स्काई विलेज प्रोजेक्ट, जे0पी0 ग्रुप की सीमेंट फैक्टी के खिलाफ आंदोलन और थर्मल बिजली प्लांट के खिलाफ सफलता पूर्वक चल रहे आंदोलनों का उत्सव भी मनाना चाहिये। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय परिसंवाद कार्यक्रम का स्थान हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू के बंजार में तय होना महत्वपूर्ण है।

सोच यह है कि, वन संघर्ष के संगठनों, मछुआरों के राष्ट्रीय संगठन, झारखंड के खनन विरोधी संघर्ष, उड़ीसा व छत्तीसगढ़ के काॅरपोरेट विरोधी संघर्ष, केरल, उत्तर प्रदेश व आंध्र प्रदेश के सकारात्मक भूमि संघर्ष, दक्षिण एवं उत्तर भारत के दलित संघर्ष आदि विभिन्न आंदोलनो के बीच राजनीति, आंदोलन, रणनीति और समन्वय पर चर्चा और साझा मंथन के लिए बैठा जाए। मौजूदा दौर में वन आंदोलनों का ऐजेंडा वनाधिकार कानून से आगे जाकर और समुदाय शासित वन क्षेत्र की दिशा में जाना है। मछुआरों के संघर्ष ने हाल ही में सरकार के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई जीती है, जब वे तटीय प्रबंधन क्षेत्र (सीएमजेड) अधिसूचना को रद्द करा पाये और पिछले तीन सालों के संरक्षित संघर्ष के माध्यम से शक्तिशाली तटीय नियमन क्षेत्र अवधारणा को वापस लाने में सफल हुए। मछुआरों के अधिकार विधेयक का मसौदा आने से, मछुआरों को अधिकारों के कानून के अवसरों एवं चुनौतियों के मामले में वन-जनों के अनुभवों से सीखने की जरूरत है।

इस परिसंवाद का उद्देश्य है जमीनी स्तर पर चल रहे विभिन्न समुदायों के आंदोलनो को साथ लाया जाए और आने वाले संकट से लड़ने के लिए सामूहिक प्रक्रिया विकसित करने में सक्षम किया जाए। जिससे विविध आंदोलनो के अंतर्गत सहयोग निर्माण और यहां तक कि पूंजीवाद एवं पूंजीवादी सरकार के खिलाफ एक बड़े संघर्ष की तैयारी के लिए उन्हें संगठित करने के मुद्दे पर ध्यान दिया जा सके। परिसंवाद में खासकर महिलाओं एवं आदिवासियों सहित अन्य वंचित समुदायों को सशक्त करने के लिए विभिन्न राष्ट्रीय कानूनों के जमीनी स्तर पर मजबूत क्रियान्वयन के लिए पेसा, वनाधिकार कानून एवं नरेगा जैसे काूननों पर भी ध्यान दिया जाएगा।
क्रान्तिकारी अभिनन्दन के साथ

गुमान सिंह, कुलभूषण उपमन्यु, आर. एस. नेगी (हिमालय नीति अभियान); रोमा, मुन्नीलाल, अशोक चैधरी (राष्ट्रीय वन जन श्रमजीवी मंच); गौतम बंदोपाध्याय (नदी घाटी मोर्चा, छत्तीसगढ़); शांता भट्टाचार्या (कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर संघर्ष समिति, उत्तर प्रदेश); ममता कुजूर (आदिवासी महिला महासंघ, छत्तीसगढ़); मधुरेश कुमार (एनएपीएम); तरूण जोशी (वन पंचायत संघर्ष समिति, उत्तराख्ंाड़); मुन्नी हंसदा (आदिवासी कल्याण परिषद, दुमका, झारखण्ड़); सुशोवन धर (सुन्दरवन वन अधिकार संग्राम समिति, पश्चिम बंगाल); विजयन एम. जे. (दिल्ली फोरम); अनिल टी. वर्गीज (प्रोग्राम फाॅर सोशल एक्शन)

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